________________
४१०
* पार्श्वनाथ चरित्र *
आपकी व्याधियोंका नाश करना चाहता हूँ ।" मुनिने कहा“वैद्यराज ! आप द्रव्य व्याधिका प्रतिकार करना चाहते हैं, या भाव व्याधिका ?” इन्द्रने कहा - " भगवन् ! द्रव्यव्याधि और भावव्याधिके भेदसे मैं सर्वथा अनभिज्ञ हूं । कृपया बतलाइये कि द्रव्यव्याधि और भावव्याधि किसे कहते हैं ?” मुनिने बतलाया - " द्रव्यव्याधि तो यही है, जिसे तुम प्रत्यक्ष देख रहे हो और भाव व्याधि कर्मको कहते हैं । क्या तुम कर्म व्याधिका भी प्रतिकार कर सकते हो ?” इन्द्रने कहा - "स्वामिन्! कर्मव्याधि बहुत ही विकट व्याधि है । उसे उच्छेद करना मेरे सामर्थ्यके बाहरकी बात है।” इन्द्रकी यह बात सुन, मुनिने अपनी एक उंगली पर श्लेष्मा लगा दिया। श्लेष्मा लगाते ही वह मानो सोनेकी हो गयी। मुनिराजने उसे इन्द्रको दिखलाते हुए कहाइन द्रव्य व्याधिओंको प्रतिकार करनेकी शक्ति तो मुझमें भी है, किन्तु मैं इनका प्रतिकार करना नहीं चाहता । जब अपने कर्म अपनेहीको भोग करने हैं, तब व्याधिका प्रतिकार करनेसे क्या लाभ होगा ?” मुनिको यह बातें सुन इन्द्रने अपना प्रकृत रूप प्रकट किया और मुनिराजको प्रशंसा कर तीन प्रदक्षिणा और अनेकानेक अभिनन्दन कर, स्वस्थानके लिये प्रस्थान किया ।
सनत्कुमार मुनि अनेक कर्मोंका क्षय कर आयु पूर्ण होने पर तीसरे देव लोकमें सनत्कुमार नामक देव हुए। देवकी आयु पूर्ण होने पर उन्हें महाविदेह क्षेत्रमें सिद्धिपदकी प्राप्ति हुई । इस प्रकार तपकी महिमा जान कर, कर्मक्षय करनेके लिये भब्य - जीवों को यथाशक्ति अवश्य तप करना चाहिये ।
-----