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* पार्श्वनाथ-चरित्र * अस्तु । कुछ दिनोंके बाद चन्द्रसेनकुमारको बुद्धि और परक्रम आदिमें बड़ा समझकर राजाने उसको युवराज बना दिया। इससे विजयकुमार बहुत ही लजित हुआ और वह उसो दिन रात्रिके समय चुपचाप घरसे निकल पड़ा। घूमते-घूमते कुछ दिनोंके बाद वह एक दिन किसी शून्य नगरमें जा पहुँचा और किंकर्तव्य विमूढ़ हो रात्रिके समय एक पुराने देवमन्दिरमें सो रहा। सुबह होते ही वह वहांसे भी चल पड़ा। किसीने ठोक हो कहा कि “फल मिलना कर्माधीन है और बुद्धि भी कर्मानुसारिणी होती है, तथापि ज्ञानवान पुरुषोंको बहुत सोच विचारकर काम करना चाहिये।” विजयकुमार इसी तरह अकेला घूमता रहा, किन्तु इस अवस्थासे वह दुःखी हो गया। कहा भी है कि-"जिस समय पासमें धन नहीं रहता, उस समय कोई मित्र भी नहीं बनता । सूर्य कमलका प्यारा मित्र माना जाता है, किन्तु जब सरोवरमें जल नहीं होता, तब वह भो उसका शत्रु हो पड़ता है।” विजय. कुमार इसी तरह भटकता हुआ उड्डीयाण भूमिमें जा पहुंचा। यहां उसने कोर्तिधर मुनिको कायोत्सर्ग करते देखा। उन्हें देख कर उसे बहुत ही आनन्द हुआ। वह अपने मनमें कहने लगा"अहो! धन्य भाग्य कि आज मुझे साधुके दर्शन प्राप्त हुए।" किसीने ठीक ही कहा है कि --देवदर्शनसे सन्तोष, गुरुदर्शनसे आशीर्वाद और स्वामी-दर्शनसे सम्मान मिलनेपर आनन्द होना स्वाभाविक ही है । अब मुनिराजको वन्दना कर मुझे अपनी आत्माको निर्मल बनाना चाहिये । इस प्रकार विचार कर शुद्ध