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* षष्ठ सग *
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अन्तमें उन्होंने उसोको पटरानी बना दिया । इस प्रकार पतिके प्रसादको प्राप्त कर शोलवती सद्गुण रूपी जलसे अपने पाप धोने लगी। कुछ ही दिनोंमें उसने अपने शील स्वभावके कारण सबको वशीभूत कर लिया । वसन्तक भी अब वहीं रहकर राजसेवा करने लगा। अब उसने जुआ, चोरी आदि बुरे कर्मोंका त्याग कर दिया और सदाचारी बनकर दिन बिताने लगा । इधर शीलवती रानी गृहस्थ धर्ममें प्रवृत्त हो सुख भोगने लगी और अभयदानके प्रभावसे यथा समय वह नवें ग्रैवेयकमें देवपनेको प्राप्त हुई । वहां एकतीस सागरोपमकी आयु भोगकर वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्धिपद प्राप्त करेगी । वसन्तकने भी गुरुयोगसे पंच अणुव्रत ग्रहण किये और सम्यक् प्रकारसे उनका पालन कर अन्तमें स्वर्ग लाभ किया । इस दृष्टान्तसे शिक्षा ग्रहणकर लोगोंको अभयदान में प्रवृत्त होना चाहिये ।”
भगवान पार्श्वनाथ भव्य जीवोंको उपदेश देते हैं कि - "हे भव्य जीवो ! साधुओंको अन्न, उपाश्रय, औषधि, वस्त्र, पात्र और जलदान देनेसे प्राणीके करोड़ों जन्मके संचित पातक नष्ट हो जाते हैं और वह चक्रवर्ती तथा तीर्थंकरका पद प्राप्त करता है । सुपात्रको दिया हुआ दान मनुष्योंके लिये बहुत ही फलदायक सिद्ध होता है । कहा भी है कि
“खलोपि गवि दुग्धं स्यादुग्धमप्युरगे विषम् । पात्रापात्र विचारेण, तत्पात्रे दानमुत्तमम् ॥"
अर्थात् - " गायको खली खिलानेसे वह भी दूधका रूप