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* षष्ठ सर्ग *
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पहुंची और हाथ जोड़ कर कहने लगी- "हे स्वामिन्! हे प्राणधार ! हे प्राणवल्लभ ! मैंने आजतक आपसे कभी किसी वस्तुकी याचना नहीं की है। यदि आप आज्ञा दें तो आज मैं आपसे कुछ प्रार्थना करू । राजाने विरक्ति पूर्वक इसके लिये अनुमति दे दी । शीलवतीने कहा, " हे नाथ ! इस चोरको मुझेदीजिये और सदाके लिये इसे मुक्त करनेकी कृपा कीजिये ।" राजाने परोपकार बुद्धिपूर्वक की हुई रानीकी यह प्रार्थना स्वीकार करते हुए कहा, -- “ प्रिये ! तूने निस्वार्थ भावसे यह प्रार्थना की है, इसलिये मैं तेरे कथनानुसार वसन्तकको अभयदान देकर इसे मुक्त करता हू ं । अब तू इसे अपने साथ ले जा सकती है। "
राजाकी यह बात सुनकर रानीको बढ़ा ही हर्ष हुआ । उसी समय वह वसन्तकको अपने साथ महलमें ले गयी और यथाशक्ति उसे स्नान, भोजन तथा वस्त्रादि द्वारा सम्मानित कर उसे अभयदान दिया। इससे वसन्तकको बड़ा ही आनन्द हुआ और वह उस अभयदानको राज्यप्राप्ति से भी बढ़ कर मानने लगा । सब रानियोंकी तरह शीलवतीने एक दिन और एक रात अपने घर रखनेके बाद दूसरे दिन उसे धर्म पुत्र मान कर विदा किया। इसके बाद वसन्तक वहांसे विदा हो, राजाके पास गया और उसे प्रणाम करने लगा । यह देखकर राजाने पूछा - " वसन्तक ! सच बताओ कि आज तू इतना प्रसन्न क्यों दिखायी देता है ? रोज तेरे शरीरपर बहुमूल्य वस्त्राभूषण होनेपर भी तेरे चेहरेपर श्यामता छायी रहती थी, किन्तु