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* पार्श्वनाथ-चरित्रबड़ा प्रेम हो गया और यह एक साथ ही क्रमशः एक-एक देशमें रहने लगे। इस प्रकार राज्यसुख भोगकर अन्तमें संयमकी साधना द्वारा उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। __हे भव्यजीवो ! तत्वज्ञानके बिना केवल विद्यासे ही गुणको प्राप्ति नहीं होती। इसी तरह शमभावसे वर्जित तपस्या और मनकी स्थिरताके बिना जो तीर्थ यात्रा की जाती है, वह भी निष्फल है।
कोटि जन्मतक तीव्र तप करनेसे जो कर्म क्षीण नहीं होते, वह समता भावका अवलम्बन करनेसे क्षणमात्रमें क्षीण हो सकते हैं । अन्तरमें वीतरागका ध्यान करनेसे ध्याता (जीव) वीतराग हो सकता है। इसलिये अन्यान्य समस्त अपध्यानोंको दूर कर भ्रामर (भ्रमर सम्बन्धी ) ध्यानका आश्रय ग्रहण करना चाहिये। स्थान, यान, अरण्य, जन, सुख या दुःखमें मनको वीतराग पनेमें जोड़ रखना चाहिये, ताकि वह सदा उसीमें लीन रहे । इन्द्रियोंका मालिक मन है, मनका मालिक लय है और लयका मालिक निरञ्जन है । यदि मनको बांध रखना हो, तो वह बँधा रह सकता है और यदि उसे मुक्त रखना हो तो वह मुक्त रह सकता है। हैं। इसलिये सुज्ञ जनोंको रस्सोसे बंधे हुए बैलकी तरह मनको वश रखना चाहिये। जिस प्रकार पुष्पमें सौरभ, दूधमें घी और कायामें तेज (जीव )स्थित रहता है उसी तरह जीवमें ज्ञान रहता है, किन्तु वह उपायसे ही व्यक्त (प्रकट ) हो सकता है। ___ इस प्रकार दान धर्मके महात्म्यका वर्णन करनेके बाद वे धर्मके दूसरे अंग रूप शील धर्मका वर्णन करने लगे: