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* षष्ठ सर्ग *
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है कि लोगोंके जाति गुण विपरीत परिस्थिति में भी परिवर्तित नहीं होते ।
एक बार मदनरेखाको स्वप्नीं चन्द्र दिखायी दिया। यह बात उसने अपने पति युगबाहुसे निवेदन की । उसने कहा - " हे देवि ! यह स्वप्न बहुत ही अच्छा हैं । इससे मालूम होता है कि तुझे चन्द्रके समान पुत्रकी प्राप्ति होगी ।" यह स्वप्न फल सुनकर मदनरेखाको बड़ा ही आनन्द हुआ। क्योंकि उस समय वह वास्त
में गर्भवती थी। तीसरे महीने गर्भके प्रभावसे मदनरेखाको जिन पूजा करने और जिनेश्वरकी कथा सुननेका दोहद हुआ । यह जान कर युगबाहुने शीघ्र ही उसका यह दोहद पूर्ण कर दिया । अनन्तर कुछ ही दिनोंके बाद वसन्तऋतु आ पहुंची। इस समय वन और उपवनों की शोभा सौगुनी बढ़ गयी । जिधर ही देखिये उधर हो नाग, पुन्नाज, मल्लिका, कुन्द, मचकुन्द, एला, लवङ्ग, द्राक्ष, कदली, जुई और चम्पक प्रभृति पुष्पों और वृक्षोंकी बहार दिखायी देती थी । चारों ओर भ्रमर गुञ्जार कर रहे थे । कोयलें कूक रही थीं और पक्षीगण क्रीड़ा कर रहे थे । उपवनकी यह शोभा देख कर युगबाहु मदनरेखाके साथ क्रीड़ा करने गया । उस समय अनेक नगर निवासी भी वहां क्रीड़ा करनेके लिये पहलेहोसे गये हुए थे। युगबाहुने सारा दिन वहीं जलक्रीड़ा, एवं खाने-पीने और सोनेमें बिता दिया । जब रात्रि हो गयी तो वह वहीं कदली गृहमें सो रहा । युगबाहुके साथ जो लोग गये हुए थे, उनमें से कुछ तो नगरको लौट आये और कुछ वहीं रह गये ।