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* षष्ठ सर्ग
३४७ चुपचाप यहांसे लौट जाओ।" सेवालका यह गर्वपूर्ण उत्तर सुनकर विजयकुमारने अपनी सेनाको आगे बढ़ाया। देखते-हीदेखते दोनों ओरको सेनामें मुठभेड़ हो गयी और भीषण मारकाट होने लगी। दोनों दलोंमें बहुत समय तक युद्ध हुआ। विजयकुमारकी सेनाने शत्रुओंसे मोर्चा लेनेमें कोई कसर न रखी; किन्तु अन्तमें भवितव्यतावश उसीको मैदान छोड़कर भागना पड़ा। जब यह समाचार जयन्त राजाने सुना, तब उसने स्वयं प्रस्थान करनेका विचार किया, किन्तु कनिष्ठ पुत्र चन्द्रसेनने कहा“पिताजो । अब कृपया मुझे जाने दीजिये।” मन्त्रीने भी राजाको समझाते हुए कहा, कि---"चन्द्रसेनको पहले भी उसकी इच्छाके विपरीत रोक रखा गया था, इसलिये अब उसे आज्ञा दे देनी चाहिये।” मन्त्रियोंकी बात राजाने मान ली और चन्द्रसेनको एक बहुत बड़ी सेनाके साथ सेवालसे युद्ध करनेके लिये भेज दिया। चन्द्रसेनने शीघ्रही रणक्षेत्रके लिये प्रस्थान किया और बड़े कौशलके साथ उसने सेवालसे युद्धकर उसे गिरफ्तार कर लिया। कुछ दिनोंके बाद वह विपुल धनसम्पत्ति और सेवालको साथ लेकर अपने नगर लौट आया। राजाने बड़े समारोहके साथ उसे नगर प्रवेश कराया । अनन्तर सेवालने जयन्तसे क्षमा प्रार्थना की, अतएव उसने उसका अपराध क्षमा कर उसे बन्धन मुक्तकर दिया। किसीने ठोक ही कहा है कि “सन्तो गृहागतं दीनं, शत्रु मप्यनुगृह्यते ।” अर्थात् संतजन अपने घर आये हुए दीन और शत्रुपर भी अनुग्रह करते हैं।