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* षष्ठ सर्ग.
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धर्म-दान, शील, तप और भाव, चार प्रकारका है। दानधमके तीन भेद हैं, यथा--ज्ञान दान, अभयदान और धर्मोपग्रह दान। सम्यग् ज्ञानसे आत्मा पुण्य पाप जान सकता है फलतः वह प्रवृत्ति और निवृत्ति (पुण्यमें प्रवृत्ति और पापसे निवृत्ति ) द्वारा मोक्षकी प्राप्ति कर सकता है। अन्यान्य दानोंमें तो शायद कुछ विनाश (कम होना ) भी दिखायी देता है। किन्तु ज्ञान दानसे तो सदा वृद्धि ही होती है। स्व और परकी कार्य सिद्धिका भी उसीमें समावेश होता है। जिस प्रकार सूर्यसे अन्धकार दूर होता है, उसी प्रकार ज्ञानसे रागादि दूर होते हैं, इसलिये ज्ञान दानके समान संसारमें और कोई भी उपकार नहीं है। ज्ञान दानसे प्राणो संसारमें वह तोर्थंकरत्व प्राप्त करता है। जिसको त्रिभुवनमें पूजा होती है । इस सम्बन्धमें धनमित्रकी कथा जानने योग्य है। यह पहले ही बतलाया जा चुका है कि दान तीन प्रकारके होते हैं-(१) ज्ञानदान (२) अभयदान और (३) धर्मोपग्रहदान । इन तीनमेंसे धन मित्रकी कथा ज्ञानदानसे सम्बन्ध रखती है। वह इस प्रकार है :
मगध नामक देशमें राजपुर नामक एक नगर है। वहां किसी समय जयन्त नामक एक राजा राज्य करता था। उसकी रानीका नाम कमलावती था। उसके उदरसे चन्द्रसेन और विजय नामक दो गुणवान पुत्रोंका जन्म हुआ था ; किन्तु पूर्व कर्मके दोषसे वे दोनों एक दूसरेके प्रति ईर्ष्या भाव रखते थे। एक दिन जिस समय राजा राज सभामें बैठा था, उसी समय द्वारपालने आकर