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* षष्ठ सर्ग *
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आपके मस्तक पर तीन छत्र शोभा दे रहे हैं। आपके चार मुखोंसे चार प्रकारके धर्मोको प्रकाशित करनेवाली जो दिव्यध्वनि प्रकट होती है, वह आकाशमें चारों ओर इस प्रकार ध्वनित हुआ करती है, मानो चार कषायोंका नाश सूचित कर रही हो । आपने पञ्चेन्द्रियों पर जो विजय प्राप्त की है, उससे सन्तुष्ट होकर देवता आपकी देशनामूमिमें मन्दारादि पांच प्रकारके पुष्पोंकी वृष्टि करते हैं । आपके द्वारा छकायकी जो रक्षा होती है - आपके सिरपर सुशोभित और नवपल्लवोंसे विकसित यह अशोकवृक्ष मानो उसकी सूचना दे रहा है । हे नाथ ! सप्तभय रूपी काष्ठको भस्म करनेसे अग्नि के समान होनेपर भी आपके संगसे ही मानो यह भामण्डल शीतलता धारण करता हो ऐसा प्रतीत होता है । आठों दिशाओं में यह जो दुंदुभो नाद हो रहा है, वह मानो अष्टकर्म रूपी रिपु, समूह परकी आपकी विजय सूचित कर रहा है । हे नाथ ! साक्षात् अंतरंग गुणलक्ष्मी ही हो ऐसी यह प्रातिहार्य को शोभा देखकर किसका मन आपमें स्थिर न होगा ?"
इस प्रकार जगत्प्रभुंकी स्तुतिकर राजा अश्वसेनने सपरिवार यथा स्थान आसन ग्रहण किया। इसके बाद भगवानने योजन गामिनी, अमृत सींचनेवाली और सभी जीव समझ सकें ऐसी ( ३५ गुणवाली ) वाणीसे मधुर देशना देना आरम्भ किया ।
" हे भव्यप्राणियो ! मानसिक दृष्टिसे तुम लोग अन्तरभाव का आश्रय ग्रहण करो ओर असारको निरीक्षण पूर्वक त्यागकर सारका संग्रह करो; क्योंकि क्रोधरूपी बड़वानलसे दुधृष्य,