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* पाश्वनाथ-चरित्र * वैरका त्याग कर तिर्यंच बैठते हैं। कहा भी है कि-"समतावंत, कलुषता रहित और निर्मोही योगी महात्माका आश्रय ग्रहणकर ( उनके प्रतापसे) हरिणी वात्सल्य भावसे सिंहके बच्चेको स्पर्श करतो है, मयूरी भुजंगको, बिल्ली हंसके बच्चोंको और गाय प्रेमविवश हो बाघके बच्चेको स्पर्श करती है।” इस प्रकार जन्मसे ही स्वभाविक वैर धारण करनेवाले प्राणी भी वैर भाव त्यागदेते हैं।
त्रिभुवनपति श्रीपार्श्वनाथके इस वैभवको उद्यान-पालसे सुनकर राजा अश्वसेन रोमाञ्चित हो उठे। उन्होंने यह शुभ संवाद लानेवाले वनपालको अपने समस्त आभूषण उतारकर इनाम दे दिये। इसके बाद उन्होंने वामादेवी ओर प्रभावतीको भी यह हाल कह सुनाया। अनन्तर उन्होंने हाथी, घोड़े तथा रथादिक सजाकर, वामादेवो और प्रभावतीके साथ महर्द्धिपूर्वक श्रीपार्श्वनाथको वन्दना करनेके लिये प्रस्थान किया। वहां पंच अभिगम सम्हाल कर उन्होंने तीन प्रदक्षिणायें की और भक्तिपूर्वक प्रभुको नमस्कार कर उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगे।
“हे नाथ ! मोहरूपी महागजका निग्रह करनेवाले आप ही एकमात्र पुरुषसिंह है-यह समझकर ही देवताओंने इस सिंहासनकी रचना की हो ऐसा मालूम होता है। हे विभो ! रागद्वेष रूपी महाशत्रु ओंपर विजय प्राप्त करनेके कारण आपके दोनों ओर दो चन्द्र उपस्थित हो, आपकी सेवा कर रहे हों, इस तरह यह दो चामर शोभा दे रहे हैं । ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूपी रत्नोंने आपमें जो एकता प्राप्त की है, उसकी सूचना दे रहे हों इस प्रकार