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* षष्ठ सर्ग **
करोड़ों देवताओंसे घिरे हुए श्रीपार्श्वनाथ प्रभुने समवसरणमें प्रवेश किया। इसके बाद पहले उन्होंने अशोक वृक्षको प्रदक्षिणा की और " नमो तित्थस्स” इस पदसे तीर्थङ्करको नमस्कार कर पूर्वाभिमुख सिंहासन पर वह विराजमान हुए । यह देखते ही व्यन्तरोंने अन्य तीन दिशाओंमें प्रभुके समान तीन और रूप उत्पन्न किये। इसके बाद प्रभुके शरीरका तेज असा जानकर इन्द्रने उनके शरीरसे थोड़ा-थोड़ा तेज लेकर भामण्डल तैयार किया और उसे प्रभुके सिरके पीछे स्थापित किया । प्रभुके सम्मुख एक रत्नमय ध्वज शोभित होने लगा । इसी समय आकाशमें मेघनाद के समान देव - दुदुभी बज उठो और उसके शब्द से दसों दिशायें पूरित हो गयीं ।
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इसके बाद पर्षदाने इस प्रकार आसन ग्रहण किया : - साधु, वैमानिक देवियां और साध्वियां अग्नीकोणमें । भवनपति ज्योतिष्क और व्यन्तरको देवियां नैऋत्यकोणमें । भवनपति, ज्योतिष्क और व्यन्तर देवता वायव्यकोणमें और वैमानिक देवता, पुरुष तथा स्त्रियें क्रमशः ईशानकोणमें। इस प्रकार वारह पर्षदायें बैठती हैं। तीन-तीन पर्षदायें भिन्न-भिन्न चारों द्वारसे प्रवेश कर, प्रदक्षिणापूर्वक प्रभुको नमस्कारकर पूर्वोक्त चारों दिशाओं में यथा स्थान बैठती हैं । इनमेंसे यदि साधु साध्वियोंका अभाव होता है, तो उनके स्थान में और कोई नहीं बैठता। प्रभुके अतिशयसे करोड़ों तिर्यंच, मनुष्य और देवता समवसरण में समा जाते हैं, फिर भी किसीको कोई कष्ट नहीं होता। दूसरे विप्रमें पारस्परिक जाति