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* षष्ठ सर्ग *
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भगवानका सेवक हूँ । अब और अनर्थ मैं नहीं सह सकता । तू जानता है कि मैं काष्टमें जल रहा था, उस समय भगवानने नमस्कार मन्त्र सुनाकर मेरा उद्धार किया और तुझे भी पापसे बचाया। इसमें भगवानने अनुचित ही क्या किया ? भगवान तो अकारणही सबके प्रति बन्धुता दिखाते हैं । और तू व्यर्थही क्यों उनका शत्रु हो रहा है । जो भगवान तीनों लोकको तारनेका सामर्थ्य रखते हैं, वे तेरे डुबाये जलमें नहीं डूब सकते; बल्कि मैं समझता हूँ कि तू आप ही अगाध भवसागरमें डूबनेवाला है” यह कहते हुए धरणेन्द्र ने मेघमालोको खदेड़ा। इससे मेघमाली भयभीत हुआ । उसने तुरत ही समस्त जल समेट लिया और प्रभु के चरणों में गिरकर, पश्चाताप पूर्वक उनसे क्षमा प्रार्थना की। पश्चात् अपने निवासस्थानको लौट गया । धरणेन्द्र ने भी अब किसी उपद्रवकी संभावना न देख, स्तुति पूर्वक भगवानको नमस्कार कर के लिये प्रस्थान किया । अनन्तर भगवानने वह रात्रि उसी अवस्थामें वहीं व्यतीत की ।
दोक्षा लेनेके बाद जब तिरालो दिन बीत गये तब चौरासीवें दिन चन्द्रमा विशाखा नक्षत्र आने पर चैत्र कृष्णा चतुर्थीको घनघातो कर्म चतुष्टय क्षय होनेपर अष्टम तप करनेवाले और शुक्ल ध्यानको धारण करनेवाले त्रिभुवनपति पार्श्वनाथ भगवान को दिन पूर्व भागमें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । इस प्रकार उन्हें लोकालोकका ज्ञान प्रकाशित करनेवाला और त्रिकाल विषयक सम्पूर्ण ज्ञान और दर्शन होनेपर देवताओंके आसन हिल उठे ।
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