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* पार्श्वनाथ-चरित्र * उत्तमता पूर्वक सजाया गया था। इसलिये कौतुकवश भगवानने उसमें प्रवेश किया। प्रासादको दोवालोंपर नाना प्रकारके सुशोभित चित्र अंकित थे। इन चित्रोंमें राज्य और राजीमतीका त्यागकर संयमश्रीको वरण करनेवाले श्रोनेमिनाथ भगवानका भी एक चित्र था। उसे देखकर पार्श्वकुमार अपने मनमें कहने लगे-“अहो ! श्रीनेमिका वैराग्य भी कैसा अनुपम था, कि उन्होंने युवावस्थामें ही राज्य और राजीमतीका त्याग कर, विरक्त हो दीक्षा ग्रहण कर लो थी। अतएव अब मुझे भी इस असार संसारका त्याग कर दीक्षा ग्रहण करनी चाहिये।।
इस प्रकारका विचारकर पार्श्वकुमार संयम ग्रहण करनेके लिये तैयार हुए। उनके हृदय-पटपर अब वैराग्यका पका रंग चढ़ गया था और उनके भोगावलो कर्म भी क्षय हो गये थे। इसी समय सारस्वतादि नव प्रकारके लोकान्तिक देवताओंने पांचवें ब्रह्मलोक से आकर प्रभुको नमस्कार कर निवेदन किया कि-“हे स्वामिन् ! हे त्रैलोक्य नायक ! हे संसार तारक ! आपकी जय हो ! हे सकल कर्म निवारक प्रभो! त्रिभुवनका उपकार करनेवाले धर्म तीर्थकी आप स्थापना करें। हे नाथ! आप स्वयं ज्ञानी और संवेगवान हैं, इसलिये सब कुछ जानते हो हैं, हम लोग तो केवल अपने कर्तव्यकी पालना करनेके लिये आपसे प्रार्थना कर रहे हैं।" इस प्रकार प्रार्थना कर, देवता लोग पुनः पार्श्वप्रभुको प्रणाम कर अपने निवासस्थानको चले गये।
तदनन्तर पार्श्वकुमार उस प्रासादसे निकलकर अपने निवास