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* षष्ठ सर्ग *
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स्थानको लौट आये । पश्चात् अपने मित्रोंको विदा करनेके बाद वे
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पलंगपर बैठकर विचार करने लगे- 'अहो ! सम्पत्ति जल - तरंगको भांति अस्थिर है, यौवन चार दिनको चांदनी है और जीवन शरद ऋतुके बादलोंकी तरह चंचल है। इसलिये हे प्राणियो ! तुम लोग धनसे दूसरेका उपकार क्यों नहीं करते ? जहांसे जन्म होता है, वहीं लोग अनुरक्त होते हैं और जिसका पान करते हैं, उसीका मर्दन करते हैं । किन्तु लोग कितने मूर्ख हैं कि यह सब देखनेपर भी उन्हें वैराग्य नहीं आता । हे प्राणियो ! हृदय में नमस्कार रूप हारको धारण करो । कानोंमें शास्त्र श्रवण रूपी कुण्डल, हाथमें दान रूपी कंकण और सिरपर गुरु आज्ञा रूप मुकुट धारण करो 1 इसे शिव वधू तुम्हारे कंठमें शीघ्र हो वरमाला आरोपित करेगी । अहो ! इस संसार में सूर्य और चन्द्र रूपी दो वृषभ रात्रि और दिन रूपी घटालसे जीवोंका आयुष्य रूपो जल ग्रहण किया करते हैं और काल रूप घट्टको घुमाया करते हैं। ऐसी कोई जाति नहीं है, ऐसी कोई योनि नहीं है, ऐसा कोई स्थान नहीं है, और ऐसा कोई कुल नहीं है, जहां प्राणियोंका अनन्तवार जन्म और अनन्तवार मरण न हुआ हो !” इसी प्रकारके विचारोंमें पार्श्वकुमारने वह समूची रात्रि व्यतीत कर दो। सुबह सूर्योदय होनेपर नित्यकर्म से निवृत्त हो वे अपने माता-पिता के पास गये और उन्हें नमस्कार कर उनसे सारा हाल निवेदन किया। उनकी बात सुन कर माता- पिताने पहले उन्हें बहुत कुछ समझाया, किन्तु अन्तमें उनका दृढ़ निश्चय देख, उन्होंने उन्हें दोक्षा ग्रहण करनेके लिये खुशीसे अनुमति दे दी ।
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