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* षष्ठ सर्ग *
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उछलते हुए समुद्र के उत्ताल तरंगोंका रोकना असंभव है, उसी तरह पूर्वकर्मके विपाकको भी कोई रोक नहीं सकता । ज्ञानी पुरुषोंने ठीक ही कहा है कि जीवको सुख दुःख देनेवाला और कोई नहीं है । "इनको देनेवाला कोई और है" यह मानना निरी अज्ञानता है । है निष्ठुर आत्मा ! पूर्वकालमें तूने जो दुष्कर्म किये हैं, वही इस समय तुझे भोग करने पड़ते हैं । किसीने ठोक ही कहा है कि
"मारोहतु गिरिशिखरं, समुद्रमुल ध्य यातु पातालं । विधि लिखिताक्षर मालं, फलति सर्व न संदेहः ॥" उदयति यदि भानुः, पश्चिमायां दिशायां, प्रचलति यदि मेरुः शीततां याति वह्निः ।
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विकसति यदि पद्म', पर्वताग्रे शिलायां,
तदपि न चलतीयं भाविनी कर्म रेखा ॥
"
अर्थात् - " पर्वत के शिखरपर चढ़िये, या समुद्रका उल्लंघन कर पातालमें जाइये, किन्तु विधाताने ललाटमें जो लेख लिख दिये है, उनका फल बिना मिले नहीं रह सकता ।" सूर्य चाहे पश्चिममें उदय हो, मेरु चाहे चलायमान हो जाये, या अग्नि शीतल हो जाये, पर्वतके पत्थरोंपर चाहे कमल विकसित हों, किन्तु भावी कर्म रेखायें कभी अमिट नहीं होतीं ।" इसलिये कर्मोंकी गति विषम है । अनन्त बलधारो तीर्थंकर भी कर्मकी-गतिका उल्लंघन नहीं कर सकते। उन्हें भी पूर्व कृत कर्मोंका फल भोगना ही पड़ता है । प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ भगवानको भी कर्म गतिके कारण एक वर्षतक आहार न मिल सका था, इसलिये किसीसे