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* पार्श्वनाथ चरित्र *
(१६) शिर: कंप दोष — भूतादिके आवेशितकी तरह सिर धुनाते
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रहना ।
(१७) मूक दोष – गुगेकी तरह हूँ हूँ करना ।
(१८) मदिरा दोष-उन्मत्तकी भांति हाथ मटकाते हुए बक
झक करना ।
(१६) प्रेक्ष्य दोष - वानरकी भांति इधर उधर देखना और मुंह
बनाना ।
इस प्रकार उन्नीस दोषों को बचाकर पार्श्व प्रभु कायोत्सर्ग करने लगे। दोनों दृष्टियोंको नासिकाके अग्रभागपर रख, ऊपर-नीचे के दांतोको स्पर्श कराये बिना, पूर्व या उत्तरकी ओर मुंह रख, प्रसन्न चित्तसे अप्रमत्त और सुसंस्थान पूर्वक ध्यानमें तत्पर हुए। जिस समय भगवान इस तरह कायोत्सर्ग कर रहे थे, उसी समय महीधर नामक एक हाथी वहां जल पोनेके लिये आया । प्रभुको देखते ही उसे जाती स्मरण ज्ञान हो आया अतएव वह अपने मममें इस प्रकार विचार करने लगा :
पूर्व जन्ममें मैं हेम नामक एक कुलपुत्रक था । दैवयोगसे मेरा शरीर वामन हो गया, इसलिये लोग मेरी हँसी किया करते थे । जब पिताकी मृत्यु हो गयी तब मैं इसी आफत के मारा घर छोड़ कर जंगलमें चला गया। वहां विचरण करते-करते एक दिन मेरी एक मुनिसे भेंट हो गयी । उन्होंने मुझे यतिव्रतके लिये अयोग्य समझ कर श्रावकत्व ग्रहण कराया और तबसे मैं श्रावक हो गया; किन्तु लोग मेरी हँसी उड़ाया करते थे इसलिये