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* षष्ठ सर्ग *
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३२६ मैं बहुतही दुःखी रहता । अन्तमें अपने छोटे शरीरकी निन्दा करता और बड़े शरीरको चाहता हुआ आर्तध्यानसे मृत्युको प्राप्त करनेके बाद मैं अपनी आन्तरिक इच्छाके कारण विशालकाय हाथी हुआ । खेद है कि पशु होनेके कारण मैं इस समय कुछ भी नहीं कर सकता । हाँ, अपनी सूंढ़से भगवानकी कुछ अर्चना अवश्य कर सकता हूँ ।" यह सोचते हुए उसने सरोवरमें प्रवेश कर स्नान किया और वहाँसे कमल लेकर भगवानके पास आया । इसके बाद उसने पार्श्व प्रभुकी तीन प्रदक्षिणा कर कमलोंसे उनके चरणकी पूजा की । एवं स्तुति तथा प्रणामकर अपनेको धन्य मानता हुआ वह अपने निवासस्थानको चला गया ।
इसके बाद निकटवर्ती देवताओंने सुगंधित वस्तुओंसे प्रभुकी पूजा की और उनके सम्मुख नाटकका अभिनय किया। उस समय किसी पुरुषने चम्पानगरीके करकंडु नामक राजाको यह सारा हाल कह सुनाया। इससे राजाको बड़ा ही आश्चर्य हुआ और वह अपनी सेवा तथा वाहनोंको लेकर भगवानको वन्दना करनेके लिये उनकी सेवामें आ उपस्थित हुआ । इसके बाद वहां उसने एक चैत्य बनवाया और उसमें पार्श्वनाथ भगवानकी नत्र हाथ ऊंची एक प्रतिमा स्थापित की। देवताओंने प्रसन्न हो वहां भी अभिनय किया । पश्चात् वह प्रतिमा अधिष्ठायकके प्रभावसे बड़ी प्रभावशाली हुई और लोगोंको अभीष्ट फल देने लगी । उसके पास ही कलि नामक पर्वत और कुण्ड नामक सरोवर होनेके कारण वहां संसारको पावन करनेवाला कलिकुण्ड नामक तीर्थ हुआ । प्रभुके