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* पार्श्वनाथ चरित्र #
उस समय साक्षात् कल्पवृक्ष के समान भगवानको देख कर धन्यने अपनेको पुण्यशाली माना और तत्काल उत्पन्न हुए विवेकके कारण प्रभुको नमस्कार कर उन्हें शुद्ध बुद्धिपूर्वक परमान्न (खीर) से पारण कराया। उस समय आकाशके देवताओंने "अहो दानं, अहो . दानं" की घोषणा कर आकाशमें दुंदुभी बजायी, सुगन्धित जलकी वृष्टिसे पृथ्वीको शीतल किया, सुवर्णकी वृष्टि की, नाना प्रकार के पुष्पोंसे भूमीको अलंकृत किया और दिव्य नाटकोंका अभिनय किया। इस प्रकार भगवानको पारण करानेसे धन्यसेठको बड़ी प्रसन्नता हुई । जिस स्थानपर प्रभुने पारण किया था, उस स्थानपर उसने हर्षपूर्वक पाद पीठकी रचना करायी ।
इसके बाद भगवान ग्राम, और नगरादिकमें विचरण करने लगे । वसुधाकी भांति सर्वसह, शरद ऋतुके बादलोंकी भांति निर्मल, आकाशकी भांति निरालम्ब, वायुकी भांति अप्रतिबद्ध, अग्निको भांति देदीप्यमान, समुद्रकी भांति गंभीर, मेरुकी भांति अप्रकंप, भारंड पक्षीकी भांति अप्रमादी, पद्मपत्रकी भांति निर्लेप, पांच समितिले समित, तीन गुप्तियोंसे गुप्त, बाईस परिशहोंको जीतनेवाले, चरण न्याससे पृथ्वीको पावन करनेवाले और पंचाचारका पालन करनेवाले पाप्रभु भ्रमण करते हुए कलिपर्वतके नीचे कादम्बरी अरण्यमें पहुँचे । वहां उन्होंने कुण्ड सरोवर के तटपर उन्नीस दोष रहित कायोत्सर्ग करना आरम्भ किया । उन्नीस दोष
इस प्रकार हैं
(१) घोटक दोष - घोड़ेकी तरह पैर ऊँचा या टेढ़ा रखना ।