________________
* षष्ठ सगँ *
३२५ अत्यन्त शोभा दे रहे थे। चारों ओर बाजे बज रहे थे, मंगल-गान गाये जा रहे थे और बन्दीजन जय-जयकार कर रहे थे। प्रभुकी पालखीको सुरासुर और मनुष्य वहन कर रहे थे । जिधर शिबिका निकलती, उधर ही लोग उनके दर्शन करनेको खडे हो जाते और उनकी स्तुति करने लगते थे । इस प्रकार आनन्द पूर्वक संयम श्रोको वरण करनेके लिये भगवान आश्रमपद उद्यानमें पहुँचे। यहां शिबिकासे नीचे उतर कर अशोक वृक्षके नीचे भगवानने अपने समस्त रत्नाभरणोंको त्याग कर, ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र रूपी रत्नोंको ग्रहण किया। उस समय शक्रेन्द्रने प्रभुके कंधे पर देवदूष्य वस्त्र रखा । इस प्रकार पौष कृष्ण एकादशी के दिन विशाखा नक्षत्र में अट्टम तपकर पंचमुष्टिसे केशोंका लोच किया और “ नमो सिद्धाणं” यह पद स्मरण करते हुए भगवानने चारित्र अंगी - कार किया | चारित्र अंगीकार करतेही उन्हें चौथा मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न हुआ | पंचमुष्टिसे लुचित किये हुए भगवंतके केशोंको शक्रेन्द्रने अपने वस्त्रमें लेकर क्षीरसागर में विसर्जन किये। प्रभुके साथ तीन सौ राजकुमारोंने भी संवेगके कारण चारित्र अंगीकार किया। इसके बाद सुरासुर और राज परिवार भगवानको नम - स्कार कर अपने स्थानको गये और भगवान अपनी दोनों भुजाये लम्बी कर वहीं कायोत्सर्ग करने लगे । अनन्तर सवेरा होते ही प्रभुने वहांसे विहार किया
I
1
अब अट्टम तपका पारण करनेके लिये भगवानने कोपकटाक्ष नामक सन्निवेशमें धन्य नामक एक गृहस्थके घर में प्रवेश किया ।