________________
२४५
* तृतीय सग. न ग्राह्याणि न देयानि, पंचद्रव्याणि पंडितः।
अग्निविषं च शस्त्र च, मद्य मांसं च पंचमम् ॥" अर्थात्-“अग्नि, विष, शस्त्र, मद्य और मांस-इन पांच वस्तु- . ओंको न तो लेना हा चाहिये, न इन्हें किसीको देना हो चाहिये।" अन्य शास्त्रोंमें भी कहा गया है कि “क्षेत्र, यंत्र, नौका, वधू, हल, बैल, अश्व, गाय, गाड़ो, द्रव्य, हाथी, मकान और ऐसेही अन्य पदार्थ जिनसे मन आरम्भ युक्त होता है और जिनसे कर्म बंधता हो, उनका दान कभी लेना या देना न चाहिये।
जिससे अनर्थदण्ड हो उसका भी त्याग करना चाहिये। कई जीव जागृत होते हो आरम्भ करने लगते हैं। वह इस तरह पानी भरनेवाले, पोसनेवाले, कुम्हार, धोबो, लुहार, माझी, शिकारी, जाल डालनेवाला, घातक, चोर, परदार लम्पट आदिको इनकी परम्परासे कुव्यपारमें प्रवृत्ति होनेपर महान अनर्थ दण्ड होता है। श्रीभगवती सूत्रमें वर्णन है कि एक बार कोशाम्बी नगरीमें रहनेवाले शतानिक राजाकी बहिन और मृगावतोकी ननंद जयन्तीने श्रीवीर परमात्मासे पूछा कि-“हे भगवन् ! प्राणीको सोते रहना अच्छा या जागते रहना?" श्रीवीर परमात्माने कहा-“हे जयन्ती ! अनेक प्राणियोंका सोते रहना अच्छा और अनेक प्राणियोंका जागते रहना ठीक है। जयन्तीने पुनः पूछा-“भगवन् ! किन प्राणियोंका सोते रहना अच्छा है और किन प्राणियोंका जागते रहना ?" श्रीवीर परमात्माने उत्तर दिया-“हे जयन्ती ! जो जीव अधर्मों हों, अधर्म प्रिय हों, अधर्म बोलते हों, अधर्महीको देखते