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* पार्श्वनाथ-चरित्र - पिताके इस उपदेशको सुनकर प्रभाकरने हंसकर कहा“पिताजी! आप पढ़नेके लिये तो कहते हैं, परन्तु पढ़नेसे क्या लाभ होगा ? पढ़नेसे न तो सुख ही मिलता है, न कोई स्वर्ग ही जाता है। किसीने कहा भी है :
बुभुक्षितर्व्याकरणं न भुज्यते, पिपासितैः काव्यरसो न पीयते। न छंदसा केनचिदुध्यतं कुलं, हिरण्यमेवार्जय निष्फलाः कलाः॥"
अर्थात्-"भूख लगनेपर व्याकरण खाया नहीं जा सकता। प्यास लगनेपर काव्यरस पिया नहीं जा सकता, और छंद शास्त्र से कुलका उद्धार नहीं हो सकता। इसलिये कलाओंको निष्फल समझकर धनोपार्जन करनेके लिये लिये यत्न चाहिये। इसके अतिरिक्त संसारमें यह भी देखा जाता है, कि लक्ष्मीकी कृपा होनेपर निर्गुणोको भी लोग गुणवान्, रूप हीनको भी सुन्दर, मूर्खको भो बुद्धिमान, निर्बलो भो बलवान और अकुलीनको भी कुलोन मानते हैं। इसलिये संसारमें केवल लक्ष्मीको हो कृपा सम्पादन करनी चाहिये ।”
पुत्रको यह ऊटपटांग बातें सुनकर दिवाकर अपने मनमें कहने लगा–“अहो, यह मेरा पुत्र होकर भी निर्गुणी, कुशील और कुलके लिये कलंक रूप हुआ। अब मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ?" किन्तु अन्तमें कोई उपाय न देख वह अपना माथा पीटकर चुपचाप बैठ गया। इसी तरह शोक-सन्तापमें उसने अपना सारा जीवन व्यतीत कर दिया। अन्तमें जब उसका मृत्युकाल समीप आया, तब उसने फिर एक बार प्रभाकरको एकान्तमें बुलाकर