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* तृतीय सर्ग *
२७३ विश्वास नहीं हो रहा है ।" प्रभाकरने कहा- "प्रिये ! मैं जो कहता हूँ वह ठोकही है । कल गर्भावस्था के कारण जब तूने मांस खानेकी इच्छा व्यक्त की थी, तब मुझे अन्यत्र कहीं मांस न मिल सका अतएव मैंने राजकुमारको मारकर तुझे उसका मांस खिला दिया । निःसन्देह मैंने यह कार्य मोहवश किया है और इसके कारण मुझे • अब पश्चताप भी हो रहा है, किन्तु अब इससे लाभ ही क्या हो सकता है ?"
पतिकी यह बात सुन सुप्रभाने कहा - " नाथ ! यह कार्य तो बड़ा ही अनुचित हुआ है, किन्तु अब धैर्य धारण कर आप घरमें बैठिये । मैं इसके लिये उचित व्यवस्था करूंगी।" इस प्रकार पतिको सान्त्वना दे, सुप्रभा उसी समय प्रभाकरके मित्र वसन्तके यहां पहुंची और उसे सारा हाल कह सुनाया। यह सुनकर वसन्तने कहा - " हे सुन्दरी ! तू चिन्ता न कर । सज्जनोंकी मैत्री जल और दूधकी तरह होती है । दूध और जल दोनों एकमें मिलनेपर दूध अपने समस्त गुण अपने मित्रको दे देता है। इसके बाद जब आंच से दूध जलने लगता है, तब जल पहले अपनेको जला देता है । अपने मित्रकी यह अवस्था देख दूध भी उबलकर अग्निमें गिरने को तैयार हो जाता है और उसे तभी शान्ति मिलती है, जब उसे अपना मित्र - जल मिल जाता है । इसलिये हे सुन्दरी तू चिन्ता न कर । मैं अपना सर्वस्व - यहांतक कि जीवन तक देकर अपने मित्रका प्राण बचाऊंगा ।"
इस प्रकार सुप्रभाको सान्त्वना दे, वसन्त; राजाके पास गया
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