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* चतुर्थ सर्ग *
२८६ सब जगह अट्ठम तप कर, बाण छोड़, चक्रीने अधिष्ठायक देवको वश किया। इसके बाद उसने वैताढ्य पर्वतके निकट सैन्य स्थापित कर सिन्धुके पश्चिम खण्डको अधिकृत किया। अनन्तर तमिस्रा गुफाके स्वामो और वैताढ्य पर्वतपर रहनेवाले कृतमाल नामक यक्षको जीत कर, सेनापति द्वारा रत्नदण्ठसे उसका द्वार खुलवाया। इसके बाद चक्रोने गजारूढ़ हो दोनों ओरकी दीवारोंपर काकिणी रत्नसे मण्डलावली आलेखित करते हुए उस गुफामें प्रवेश किया। उस प्रकाशको देखते हुए सैन्यने भी उसका अनुसरण किया। कुछ दूर चलनेपर निम्नगा और उनिम्नगा नामक दो नदियां मिलीं। इन्हें निर्विघ्न पारकर चक्रीने पचास योजनकी वह गुफा पार की। इसके बाद गुफाके दूसरी ओरका द्वार खोलकर चक्रो बाहर निकला। वहां उसने आपात जातिके म्लेच्छ राजाओंको जीतकर तीन खण्ड अधिकृत किये। इसके बाद क्षुद्र, हिमवन्त, कुमार देवको वश कर, ऋषभकूटपर काकिणी रत्नसे अपना नाम लिख, उसने खण्डप्रताप नामक गुफा खुलवायी। इसके बाद उसने वैताढ्य पर्वतपर जाकर दक्षिण और उत्तर दोनों श्रेणियोंके समस्त विद्याधरोंको जीता और सेनापतिको भेजकर गंगाका पूर्ण खण्ड उससे अधिकृत कराया। अन्तमें उसने गंगादेवीको भी वश कर लिया, फलतः वहां नव निधान उत्पन्न हुए।
इस प्रकार छः खण्ड पृथ्वी-मण्डल अधिकृत कर चक्रवर्ती सुवर्णबाहु अपने नगर वापस आया। इसके बाद अन्याय राजा और देवताओंने मिलकर महोत्सव पूर्वक तीर्थजलके अभिषेकसे बारह