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# पार्श्वनाथ चरित्र
अग्निकुण्डमें डाले हुए काष्टमें एक बड़ासा सर्प जल रहा है। यह
कैसा अज्ञान है कि
सभी लोग जानते हैं
देखकर दयालु पार्श्वकुमार ने कहा – “ अहो ! तपमें भी दया नहीं दिखायी देती । यह तो कि दया रहित धर्मसे मुक्ति नहीं मिलती । कहा भी है कि जो प्राणियोंके वधले धर्मको चाहता है, वह मानो अग्निसे कमल-वन, सूर्यास्त के बाद दिन, सर्प-मुखसे अमृत, विवादसे साधुवाद, अजोर्ण से आरोग्य और विषसे जीवन चाहता है । इसलिये दयाही प्रधान है । जिस प्रकार स्वामी बिना सैन्य, जीव बिना शरीर, चन्द्र बिना रात्रि ओर हंस- युगल बिना नदी शोभा नहीं देती, उसी प्रकार दयाके बिना धर्म नहीं सोहता । इसलिये हे तपस्विन् ! दया रहित वृथा ही क्लेश दायक कष्ट क्यों सहन करते हो ? जीवघातसे पुण्य 'हो ही कैसे सकता है ?” पार्श्वकुमारको यह बात सुनकर कमठने कहा - "हे राजकुमार ! राजा लोग तो केवल हाथी और अश्व क्रीड़ा करना हो जानते हैं । धर्मको तो हमारे जैसे महामुनि ही जान सकते हैं ।” कमठका यह अभिमान पूर्ण वचन सुनकर जगत्पति पार्श्वकुमारने अपने अनुचरों द्वारा अग्निकुण्डसे वह काष्ट बाहर निकलवाया और उसे यत्न पूर्वक चिरवाकर उसमें से
* इस चरित्रके मूल लेखक उदयवीर गाणिने एवं हेमचन्द्राचार्य आदि अन्यान्य पार्श्वनाथ चरित्रके रचयिताओंने भी अपने-अपने चरित्रोंमें केवल एक साँपका उल्लेख किया है; किन्तु "कल्पसूत्र" की कई टिकाओं में नागनागिन दोनोंका उल्लेख दिया गया है इसीसे यहांपर हमने अपने चित्रमें नाग-नागिन दोनोंका भाव दिखाया है । -सम्पादक