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* चतुर्थ सगँ *
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वह इधर उधर भ्रमण करता हुआ मुनिके समीप आ पहुँचा। उन्हें देखते ही पूर्वजन्मके वैरके कारण वह क्रुद्ध हो उठा और पूछ पटकता हुआ मुँह फैलाकर मुनिकी ओर दौड़ा। उसी समय उसने शुक्ल ध्यान करते हुए मुनि पर भीषण वेग से आक्रमण कर उन्हें बुरी तरह घायल कर दिया । किन्तु मुनिराज इससे लेशमात्र भी विचलित न हुए । उन्होंने अपने ध्यानको और भी बढ़ाकर, उसे अपना प्रिय अतिथि मानते हुए रागद्वेषसे रहित हो सम्यक् आलोचना को । अन्तमें समस्त प्राणियों से क्षमा प्रार्थना कर, इक्षुरसकी भांति उत्तम धर्मरसको ग्रहण कर मुनिराजने इस आसार शरीरको त्याग दिया ।
नवाँ भव ।
इस प्रकार सिंह द्वारा आहत हो प्राण त्याग करनेके बाद मुनिराज सुवर्णबाहु दशवें प्राणत नामक देव लोकमें, महाप्रभ नामक विमान में, बीस सागरोमकी आयु प्राप्तकर सर्वोत्तम देवरूप में उत्पन्न हुए और वहां विशेष सुख उपभोग करने लगे ।
इधर उस पापिष्ट सिंहकी मृत्यु होनेपर वह चौथी पंकप्रभा नामक नरक पृथ्वीमें नारको हुआ। वहां वह शीत, उष्ण, क्षुधा, पिपासा, भय, शोक, परवशता, ज्वर और व्याधि प्रभृति नरककी इन वेदनाओंको सहन करने लगा । अन्तमें वहांसे निकल कर वह तिर्यंच योनिमें भ्रमण करता हुआ तीव्र दुःख भोग करने लगा ।