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* पश्चम सर्ग ज्योतिष्कके दो-सूर्य और चन्द्र-यह सभी चौंसठ इन्द्र वहां इकट्ठे हुए। __इसके बाद वहां सुवर्णके, रजतके, रत्नके, सुवर्ण और रत्मके, सुवर्ण और रजतके, रजत और रत्नके, सुवर्ण रजत और रत्नके तथा मिट्टीके इस प्रकार आठ जातियोंके हर एक इन्द्रने एक हजार और आठ कलश बनवाये गये। कलश तैयार होनेपर उन्हें क्षोर समुद्रुके जलसे भरकर अच्युतादि देवेन्द्रोंने विधिपूर्वक भगवानका अभिषेक किया और पारिजातक पुष्पादिसे उनकी अर्चना की। इसके बाद अनेक देव स्तुति करने लगे, अनेक हर्षित हो नृत्य करने लगे, अनेक गांधार, बंगाल, कौशिक, हिंडोल, दीपक, वसन्त, सोहाग, प्रभृति दिव्य देवरागोंसे गीत गान करने लगे। कई देवता छप्पन कोटि तालके भेदोंसे दिव्य नाटक करने लगे। अनेक देवता तत, वितत, घन और सुषिर यह चार प्रकारके बाजे बजाने लगे। और अनेक कौतुक वश हर्ष-नाद करने लगे। ___ इसके बाद जिन भगवानको ईशानेन्द्रको गोदीमें बैठाकर सौधर्मेन्द्रने चार वृषभोंका रूप धारण किया और उनके आठ शृंगोंसे निकलते हुए जलसे प्रभुको नहलाया। पश्चात् दिव्य वस्त्र से उनका शरीर पोंछकर, उन्हें दिव्य चन्दन विलेपन करनेके बाद पुष्पोंसे उनका पूजन किया। यह सब हो जानेपर इन्द्रने स्वामीके सम्मुख रजताक्षत द्वारा दर्पण, वर्धमान, कलश, मीनयुगल, श्रीवत्स, स्वस्तिक, नंद्यावर्त और भद्रासन-यह आठ मंगल अंकित किये। इसके बाद सभी देवता प्रभुकी इस प्रकार स्तुति करने लगे :
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