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* पञ्चम सर्ग *
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यह हाल सुनकर अश्वसेन राजाने रोषपूर्वक कहा – “प्रसेनजितको जरा भी भयभीत होनेकी आवश्यकता नहीं है । मैं इसी समय सैन्य लेकर कुशस्थलकी रक्षा करने चलता हूँ और कलिंग राजाको भी इस धृष्टताके लिये अवश्य ही सजा दूंगा।” यह कहकर राजा अश्वसेनने रणभेरी बजवायी । उसे सुनते ही चारों ओरसे सैनिक आ आकर इकट्ठे होने लगे । सैनिकोंको रण-यात्राकी तैयारी करते देख पार्श्वकुमारने अश्वसेनसे पूछा - " हेपिताजी ! यह सैनिक लोग किस लिये तैयार हो रहे हैं ?" यह सुन अश्वसेनने पार्श्वकुमारको कुशस्थलके मन्त्रीको दिखलाते हुए उसे सारा हाल कह सुनाया । सुनकर पार्श्वकुमारने कहा – “पिताजी ! उस कायर यवनको सजा देनेके लिये आप जायंगे ? यह ठीक नहीं । आप यहीं रहिये, मैं ही उसे शिक्षा देनेको जाता हूँ।” यह सुनते ही राजाने उसकी युक्ति-युक्त बात जानकर प्रसन्नता पूर्वक उसे वहां जाने की अनुमति दे दी । अनन्तर पार्श्वकुमारने शीघ्रही सैन्यको तैयार कर लिया और मन्त्रीपुत्र पुरुषोत्तम तथा कई राजाओंके साथ कुशस्थलके लिये प्रस्थान किया । उनकी सेनामें हाथी सबसे आगे चलते थे और वे पर्वतके समान दिखायी देते थे । नदीके वेग समान घोड़े, क्रोड़ागृह समान रथ और वानर सेनाके समान पदातियोंकी शोभा देखते ही बनती थी । जिधर ही यह सेना जा निकलती उधर ही बन्दी जनोंके घोष, शंखोंके शब्द और बाजोंके नादसे आकाश प्रतिध्वनित हो उठता था । मार्गमें उन्हें रथ समेत इन्द्रका मातलि नामक सारथि आ मिला। उसने प्रणाम