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* पञ्चम सर्ग *
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एक समय कई मनुष्य गहने-कपड़ोंसे सजकर कहीं जा रहे थे, उन्हें देखकर कमठको वैराग्य आ गया । वह अपने मनमें कहने लगा कि - " एक यह पुण्यवान पुरुष हैं जो उत्तम वस्त्र धारण करते हैं और हजारों मनुष्योंको सहायता देते हैं और एक मैं हूँ जोकि अपना पेट भी नहीं भर सकता । किसोने ठीक ही कहा है कि अनेक मनुष्य ऐसे हैं जो हजारों का पालन करते हैं, अनेक मनुष्य ऐसे हैं, जो लाखोंका पालन करते हैं और अनेक मनुष्य ऐसे भी हैं जो अपना पेट भी नहीं भर सकते। यह केवल सुकृत और दुष्कृत होका फल है । इसलिये मैं भी तपस्या करू ताकि अब दरिद्र न भोगना पड़े। इस तरह सोचते हुए उसने तापसी दीक्षा ग्रहण कर ली | पश्चात् कन्द मूलादि भक्षण कर वह पञ्चाग्नि तप करने लगा ।
इसी जंबूद्वीप के भरत क्षेत्रमें साक्षात् स्वर्गपुरीके समान बाराणसी नामक एक नगरी है । इसी नगरीमें इक्ष्वाकु वंशोत्पन्न अश्वसेन नामक राजा राज्य करता था । दान और शौर्यके कारण उसका उज्वल यश दसों दिशाओं में फैल रहा था । वह युद्ध में सूर्य के समान प्रतापी, गरीबोंपर सोमके समान सौम्य, दुष्टोंपर मंगल के समान वक्र, शास्त्रमें बुधके समान कुशल, वाणीमें वृहस्पतिके समान निपुण, नीतिमें शुक्र के समान प्रवीण और मंदोंके लिये शनिके समान मन्द था । उसके वामादेवो नामक एक पटरानी थी। वह रूप यौवन, पवित्रता और पुण्यकी तो मानो मूर्तिमान प्रतिमा ही थी । राजा और रानी दोनोंमें बड़ाही प्रेम था । वे अपना जीवन आनन्द पूर्वक व्यतीत करते थे।