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* पार्श्वनाथ-चरित्र - वर्ष पर्यन्त उसका राज्याभिषेक किया।सब मिलाकर बत्तीस हजार राजाओंने उसको अधीनता स्वीकार की। इसके अतिरिक्त चौंसठ हजार रानियां, चौरासो लाख हाथी, चौरासी लाख घोड़े, और छीयानवे कोटि ग्रामोंका वह स्वामी हुआ। इस प्रकार सुवर्णबाहु चक्रीने चक्रवर्तीकी समस्त विभूतियोंसे विभूषित हो दीर्घकाल तक प्रजाका पालन किया।
एक दिन सुवर्णबाहु अपने प्रासादके झरोखेमें बैठा था। इसी समय उसे आकाशमें देवता दिखायी दिये। उनके मुंहसे जगन्नाथ तीर्थंकरका आगमन सुनकर राजाको शुक्ल पक्षके रत्नाकरको भांति बड़ा ही आनन्द हुआ। वह अपने मनमें कहने लगा- "अहो ! वही देश और वही नगर धन्य है, जहां भगवन्तका आगमन होता है। जीवनमें वही दिन और वही घड़ो धन्य, है जिसमें प्रभुके दर्शन और बन्दन होते हैं।” इस प्रकार विचार कर सुवर्णबाहु जिनेन्द्र भगवानको चन्दन करने गया। वहां उसने मुकुट, छत्र और चामर प्रभृति पांच राज-चिन्होंको दूर रख, जिने. श्वरके दर्शन किये। इसके बाद वह यथा स्थान बैठकर जिनेश्वर भगवान्का उपदेश श्रवण करने लगा।
जिनेश्वरने कहा-“हे भव्य प्राणियों ! सम्यक्त्व, सामायिक, सन्तोष, संयम, और सज्झाय-यह पांच सकार जिसके पास हों उसे अल्प संसारी समझना चाहिये। इसमें सर्वप्रथम निरतिचार सम्यक्त्वका पालन कर मिथ्यात्वका सब प्रकारसे त्याग करना चाहिये। मिथ्यात्वके दो भेद हैं-लौकिक और लोकोत्तर ।