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* पार्श्वनाथ-चरित्र * इसके बाद पंच नमस्कार स्मरण कर एवं सम्यक् प्रकारसे आलोचनाकर मुनिने इस प्रकार अनशन किया-"मैं चार शरणों को अंगीकार करता हूँ--अरिहंत शरण, सिद्ध शरण, साधु शरण और जिनधर्म शरण । इन चारों शरणोंकी मुझे प्राप्ति हो । साथही मैं अठारह पाप स्थानोंका पञ्चक्खाण करता हूँ। यथा-प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मेथुन, द्रव्यमूर्छा, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, रति, अरति, परपरिवाद, मायामृषावाद और मिथ्तात्वशल्य । इन अठारह पाप स्थानोंका मैं विसर्जन करता हूं। और अपने धर्माचार्य एवं धर्मोपदेशक गुरुको नमस्कार करता हूं।"
सातवाँ भव। इस प्रकार एकाग्र चित्तसे शुभ ध्यान करते हुए मुनिराज को समाधि मरण प्राप्त हुआ। इसके बाद उनका जीव मध्यम ग्रैवेयफमें, आनन्दसागर नामक विमानमें, ललितांग नामक देव हुआ। वहां सत्ताईस सागरोपमको आयु प्राप्त कर वह विविध सुख उपभोग करने लगा। दूसरी ओर वह कुरंगक भोल भी बहुत दिनोंतक जीवित रहनेके बाद मृत्युको प्राप्त हुआ। इसके बाद वह तमस्तमः प्रभा नामक सातवीं नरक पृथ्वीमें, सत्ताईस सागरोपमकी मध्य आयु प्राप्तकर नारकीके रूपमें उत्पन्न हुआ। और वहाँ वह नाना प्रकारके दुःख सहन करता हुआ समय व्यतीत करने लगा।