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* तृतीय सर्ग **
२८१ अंगारके समान लाल और शरीर स्याहीके समान काला था । वह अनेक जीवोंका संहार कर पाप कर्मों द्वारा अपना जीवन निर्वाह करता था। एक दिन भवितव्यता वा वज्रनाभ मुनीन्द्र भी उसो ज्वलनाद्रि पर्वतपर रात्रि के समय कायोत्सर्ग करनेके लिये रह गये । उस समय वह स्थान उलूक, शृगाल और व्याघ्र प्रभृति पशु पक्षियोंके भयंकर स्वरसे पूरित हो रहा था और भूतादिक अट्टहास्य कर रहे थे, किन्तु इससे लेशमात्र भी विचलित न हो, वे धर्मजागरण करते रहे । सवेरा होते ही वह कुरंगक भोल उसी जगह शिकारको खोजमें आ पहुँचा। इधर उधर निगाह करते वह मुनिको ओर ताकने लगा । उन्हें देखते ही पूर्वजन्म के द्वेष के कारण वह कहने लगा--"अहो ! आज सवेरे हो इस दुष्टका अनिष्ट दर्शन हुआ । इसलिये अब तो पहले इसीका विनाश करना चाहिये | यह सोचकर उसने उसी समय मुनिराजको बाण मारना आरम्भ कर दिया । किन्तु मुनि बाण लगनेपर भी क्रुद्ध किंवा दुखित न हुए। वे अपने सनमें कहने लगे" हे जीव ! तुझे अपने पूर्वकर्मो का फल भोगना हो चाहिये । क्योंकि
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उपेक्ष्य लोष्टक्षेप्तारं, लोष्ठं दृष्ट्वाप्ति मंडलः । सिंहस्तु शरमप्रेक्ष्य, शरशेप्तारमा ज्ञते ॥
यह है कि श्वान ढेला दौड़ता है; किन्तु सिंह
उपदेश माला भी ऐसी ही एक गाथा है । उसका तात्पर्य फैकनेवालेको न देखकर ढेलोंको काटने बाणको न देखकर बाण मारनेवालेपर
आक्रण करता है ।”