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* तृतीय सर्ग *
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नामक अपने कुमारको शासनभार सम्हालनेके लिये उपयुक्त समझ उसे सिंहासनपर बैठाया और उसने अपनी पत्नी तथा कुबेरके साथ दीक्षा ग्रहण कर ली। अब वज्रनाभ राजा न्यायपूर्वक प्रजाका पालन करने लगा। उसकी रानीका नाक विजया था । जिसके उदरसे यथासमय चक्रायुध नामक कुमारका जन्म हुआ । और जब वह बड़ा हुआ तब उसे वज्रनाभने युवराज बना दिया ।
एक बार राजा झरोखेमें बैठकर शुभ ध्यान कर रहा था । ध्यान करते-करते उसे जाति-स्मरण ज्ञान हुआ अतएव पूर्वजन्मके आराधित चारित्रका उसे ख़याल हो आया । वह मनमें सोचने लगा- “ अहो ! संसार-सागरकी उत्ताल तरंगोंमें पड़कर किसकी दुर्गति नहीं होती ? कितनेही उत्पन्न होते हैं, कितनेही विनाश होते हैं, कितने ही गाते हैं, कितने ही माथेपर हाथ रख विलाप करते हैं। जिस प्रकार आग लगनेपर मनुष्य मूल्यवान और हलकीहलकी चीजें साथ लेता है, उसी प्रकार इस मनुष्य जन्ममें भी करना चाहिये। यह संसार-सागर बिना, चरित्र रूपी नौकाके पार कैसे किया जा सकता है ?" इस प्रकार विचर करते हुए राजाके मनमें वैराग्य हो आया इसलिये उसने व्रत लेनेका निश्चय किया । निदान उसने राजकुमारको बुलाकर उसे अपनी इच्छा कह सुनायी । पिताकी बात सुनकर राजकुमार चक्रायुधने कहा“ पिताजी ! आप जो आज्ञा दें वह मैं अङ्गीकार करनेको तैयार हूं, किन्तु अभी आप ऐसा विचार क्यों करते हैं ? दीक्षा तो वृद्धा वस्था में ही लेना उचित है । अभी तो प्रजाका पालन और मेरा