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* पार्श्वनाथ-चरित्र * जिनेश्वर भगवानने इस प्रकार नव तत्त्व बतलाये हैं। (१) जीव ( २) अजीव (३) पुण्य (४) पाप (५) आश्रय (६) संबर (७) निर्जरा (८) बन्ध और (९) मोक्ष । इनमेंसे कर्मको करनेवाला, कर्म-फलका भोगनेवाला और चैतन्य लक्षण युक्त हो वह, जोव कहलाता है । इससे विपरीत परिणामीको अजोव कहते हैं। सत्कर्मके पुद्गलको पुण्य और उससे विपरीतको पाप कहते हैं। बन्धनके हेतुभूत, मन, वचन और कायाके व्यापार आश्रव कहलाते हैं। इनके निरोधको संवर कहते हैं । जीवका कर्मके साथ जो सम्बन्ध किंवा ऐक्य होता है उसे बन्ध कहते हैं। बद्ध कर्मोंका नाश होना निर्जरा कहलाता है और देहादिकके आत्यंतिक वियोगको मोक्ष कहते हैं। इन नवं तत्वों पर स्थिर आशयसे श्रद्धा करनेपर सम्यक्त्व और ज्ञानके योगसे चारित्रको योग्यता प्राप्त होती है। सिद्धान्तमें भी कहा है कि शान, दर्शन
और चारित्र इन तीनोंके समायोगको जिन शासनमें मोक्ष कहा गया है। जिस प्रकार पंकरहित तुम्बी अपने आप जलपर तैरती है, उसी प्रकार कर्मरूप मल क्षीण होनेपर जीवको अनायास मोक्षकी प्राप्ति होती है। इस प्रकार वीतराग देव, तत्वोपदेशक गुरु और दयामूल धर्मकी आराधना करनेसे अपुनर्भव अर्थात् मोक्षकी प्राप्ति होती है।
यह तत्वोपदेश सुनकर कुवेर और राजा दोनोंको प्रतिबोध प्राप्त हुआ। इसके बाद वे दोनों गुरुको नमस्कार कर अपने निवास स्थानको लौट आये। इसके बाद शीघ्र ही वजवीर्य राजाने वजनाभ