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* तृतीय सर्ग *
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राज्य होता,
सब होता ?
दूं जो आपने अनेक बार मुझपर किये हैं, तो मुझसे बढ़कर कृतघ्नी इस संसारमें दूसरा हो ही नहीं सकता। मैं अपने जीवन में वह दिन कभी न भूलूँगा, जब आपने तीन आँवले खिलाकर तीन बार मेरी प्राण रक्षा को थी । यदि उस दिन आपने मेरा प्राण न बचाया होता, तो आज कहाँ मैं होता, कहाँ कहां पुत्र होता, कहां परिवार होता और कहां यह इसलिये दण्डकी तो बातही छोड़ दीजिये। जो होनी बदा थो वह हो गयो । अब दण्ड देनेसे राजकुमार थोड़े ही लौट आयेगा ?” यह सुन प्रभाकरने कहा - " नहीं, राजन् ! अपराधीको उसके अपराधके लिये दण्ड मिलना ही चाहिये। मेरे पूर्वकार्योंका जरा भी ख़याल करने की आवश्यकता नहीं है। खुशीसे दण्ड दीजिये । राजाने कहा – “यदि आपकी यही इच्छा है कि दण्ड दिया जाय, तो मैं आपको राजी रखनेके लिये कह सकता हूं कि आपने तीन आंवले देकर तीन बार मेरा प्राण बचाया था, इसलिये अब एक आंवलेका उपकार इस अपकारसे कट गया। अब मैं केवल दोही अलोंके लिये आपका ऋणी रहा ।" यह कह राजाने प्रभाकरको गलेसे लगाकर कहा – “ मन्त्रो ! इस घटनाको इस प्रकार भूल जाइये कि जैसे कभी कुछ बना ही न हो । मनुष्योंके हाथसे अनेक बार किसी कारणवश ऐसे काम हो जाया करते हैं । इसलिये इसकी चिन्ता छोड़ दोजिये और अपने मित्र एवं अपनी धर्मपत्नीके साथ घर जाइये और मौज कीजिये। अब आप किसी तरहका खयाल न कर कलसे यथानियम राजकाज देखना और मुझे
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