________________
२५८
* पार्श्वनाथ चरित्र *
योगसे लोहा भी सुवर्ण हो जाता है और सुवर्णके योगसे काच भी मणिके समान दिखायी देने लगता है ।"
इसके अतिरिक्त अकुलीन होनेपर भी मनुष्य विवेको बतना है और कुलीन होनेपर भो कुसंगसे अविवेकी बनता है | अग्निके योगसे शंख भी दाह उत्पन्न करने लगता है | चेतनायुक्त मनुष्योंके संगसे गुण दोष तो उत्पन्न होतेही हैं, किन्तु संगका प्रभाव इतना जबदस्त होता है : कि वृक्षोंकी संगतिका भी मनुष्यपर प्रभाव पड़ता है । यह अनुभव सिद्ध बात है कि अशोक वृक्षकी संगतिसे शोक दूर होता है और कलिवृक्षके संगसे कलह होता हैं । धर्म की प्राप्ति भी जोवको सत्संगसे ही होती है। इस सम्बन्धमें प्रभाकरकी कथा मनन करने योग्य हैं। वह इस प्रकार है :
******************
प्रभाकरकी कथा |
********
भरतक्षेत्रके वीरपुर नामक नगर में दिवाकर नामक एक ब्राह्मण रहता था। वह यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन, दान और प्रतिग्रह प्रभृति षट्कर्मोंमें सदा लीन रहता था । उसके प्रभाकर नामक एक दुर्गुणी पुत्र था । वह स्वेच्छा पूर्वक इधर उधर भटकता और नामा प्रकारके उपद्रव किया करता था । दिवाकर अपने पुत्रको सदा उपदेश देता और उसे अनेक प्रकारसे