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* पाश्र्श्वनाथ चरित्र
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उसने अपना सारा हाल कह सुनाया। सुनकर राजाने कहा - " है वत्स ! विनय और विवेकके कारण तू सदोष होनेपर भी निर्दोष ही है। कहा भी है कि :--
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"यस्य कस्य प्रसूतोऽत्र, गुणवान् पूज्यते नरः । सुवंशोपि धनुर्दण्डो, निर्गु याः किं करिष्यति ॥ "
अर्थात् -" चाहे जिस वंशमें जन्म हुआ हो, किन्तु पूजा तो सदा गुणवान पुरुषकी ही होती है । जिस प्रकार अच्छे बाँसका बना हुआ धनुष भी गुण ( प्रत्यंचा ) के बिना कोई काम नहीं दे सकता, उसी तरह अच्छे वंशमें जन्म होनेपर भी निर्गुणी हो तो वह किसी कामका नहीं होता ।"
राजाकी यह बातें सुमति नीचा सिर किये हुए सुन रहा था । राजाने बड़े प्रेमसे हृदय लगाकर उसी दिन उसे मन्त्री बना दिया। सुमतिने सो अपने इस नये पदका भार बड़े हर्ष से अङ्गीकारपर उठा लिया । और योग्यता पूर्वक राज काज कर, अन्तमें उसने सद्धर्मपालन के कारण सद्गति प्राप्त की। सुमतिकी इस कथासे शिक्षा ग्रहण कर प्रत्येक मनुष्यको विनय और विवेक अवश्य धारण करना चाहिये ।
किन्तु विनय और विवेककी प्राप्ति ऐसे ही नहीं हो जाया करती । इसके लिये सत्संगकी आवश्यकता पड़ती है । संगति करनेके पहले भी यह अच्छी तरह देख लेना चाहिये कि मनुष्य सज्जन हैं या नहीं । जो सज्जन हों उन्हींको संगति करनी चाहिये । सजनोंकी संगतिसे सिवा लाभके हानि नहीं होती । शास्त्रमें
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