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* पार्श्वनाथ-चरित्र * करना चाहता।" राजाकी यह बात सुन प्रभाकरके मित्र और उसकी स्त्रीको छोड़ सभीको बड़ा ही दुःख हुआ और वे व्याकुल हो उठे।
प्रभाकरने कहा-.."बस, राजन् ! अब आप अपना क्रोध शान्त कीजिये। मैंने केवल अपने पिताकी बातकी परीक्षा करनेके लिये ही यह सब किया था। मैं देखना चाहता था, कि उन्होंने जो कहा है वह ठीक है या नहीं। अस्तु, अब मेरा विश्वास हो गया कि उन्होंने जो कहा था, वह अक्षरशः ठोक है। अब आप खुशीसे अपने सिपाही मेरे साथ भेजिये, मैं उन्हें आपका मयूर सौंप देता हूँ। मैंने उसे मारा नहीं है। केवल छिपा रखा है।” यह कहकर प्रभाकरने राजाको सारा हाल कह सुनाया और मयूर लाकर उसको दे दिया। यह देखकर सिंहने बहुत पाश्चाताप किया और प्रभाकरसे कहा कि जो होनी थी वह हो गयी, अब किसी तरहका ख़याल न कर इसी जगह आनन्दसे जीवन व्यतीत करो। किन्तु इससे प्रभाकर रहनेको राजी न हुआ। उसने कहा--. "प्रत्यक्ष दोष दिखायी देनेपर भी उसका त्याग न करना तो परले सिरेकी मूर्खता कही जा सकती है।"
यह कहते हुए प्रभाकर उसी दिन वहांसे चल पड़ा। रास्तेमें वह इन दुष्टोंकी दुष्टतापर विचार करने लगा ! वह कहने लगा-- “अहो ! दुर्जनकी संगति किंपाक वृक्षकी छायाकी भाँति दुःख. दायक होती है। मैंने इन लोगोंपर जो उपकार किया था, उसकी इन लोगोंने ज़रा भी परवाह न की। मूर्ख और दुष्टोंकी संगति की अपेक्षा मृत्यु भी अधिक श्रेयस्कर होती है। किसीने ठीक