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** तृतीय सगं*
२६५ आ रहे हैं। लोभचन्दीने पूछा - " तूने क्या अपराध किया है जिसके कारण राजाने तुझे पकड़नेके लिये अनुचर भेजे हैं ?” प्रभाकरने कहा – “मैंने अपनी स्त्रीको मांस खिलानेके लिये राजाके मयूरको मार डाला है । यह सुनते हो उस स्वार्थी मित्रने कहा - " राजाके अपराधोको अपने घरमें कौन बैठाये ? भाई ! मैं इस समय तुझे अपने घरमें आश्रय नहीं दे सकता।” लोभचन्दीके यह कहनेपर भी प्रभाकर उसके घर में घुस गया किन्तु इसपर भी लोभचन्दीको दया न आयी। उसने उसी समय राजाके सिपाहियों को बुलाकर प्रभाकरको पकड़ा दिया। वे लोग उसके हाथ पैर बांध कर, वध करनेके लिये नगरके बाहर ले आये। वहां वे जब उसको वध करने को तैयार हुए, तब उसने दीनता पूर्वक कहा - "भइयो ! मैंने तुम लोगोंपर अनेक उपकार किये हैं । तुम क्या एक बार मुझे राजाके पास न ले चलोगे ? संभव है कि वहां चलनेसे मेरी जान बच जाय।” प्रभाकरकी यह बात सुन राजाके सिपाही उसे राजाके पास ले आये । प्रभाकरने राजासे दीनता-पूर्वक क्षमा प्रार्थना करते हुए कहा - "हे राजन् ! आप मेरे स्वामी हैं । आपको मैं अपने पिता तुल्य समझता हूँ। यह मेरा पहला ही अपराध है । इसे क्षमा करने की कृपा करें ।” राजाने लाल लाल आंखें निकाल कर कहा - "मैं तो प्राणके बदले प्राण चाहता हूँ | तूने मेरे मयूरको जिस निर्दयताके साथ मारा है, उसी निर्दयताके साथ तेरा भी वध किया जायगा । तू या तो मेरा मयूर ला दे या मरनेके लिये तैयार हो जा । मयूर घातकपर मैं किसी प्रकारकी दया नहीं