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* पाश्वनाथ-चरित्र * कर घोड़ोंको पकड़ेनेकी आज्ञा दो, किन्तु जब तक कोई उनके पास पहुँचा, तबतक घोड़े पवनवेगसे दौड़कर उनकी दृष्टि मर्यादासे आगे निकल गये। उन्हें रोकनेके लिये राजा ओर मन्त्री ज्यों ज्यों उनकी लगाम खींचते, त्यों त्यों विपरोत शिक्षाके कारण वे और भी भागते थे। इस प्रकार दोनों अश्व जंगलमें जा पहुंचे। इसो समय प्रभाकरका घोड़ा एक आंवलेके वृक्ष नाचेसे जा निकला । प्रभाकरने हाथ ऊँचा कर उस बृक्षसे तोन आंवले तोड़ लिये। इसके बाद अश्व और भो आगे निकल गये। राजा और मन्त्रीके हाथोंसे अब लगाम भो छुट गयी, किन्तु उन दोनोंको यह देखकर बड़ा ही आश्चर्य हुआ कि इस अवस्थामें और भी स्वच्छन्दता पूर्वक भागनेके बदले दोनों घोड़े खड़े हो गये। उनके खड़े होते हो राजा और मन्त्री नाचे उतर पड़े और दोनों घोड़ोंने उसी क्षण अपना प्राण विसर्जन कर दिया। उनको यह अवस्था देख दोनोंको बड़ा हो दुःख हुआ। इसके लिये कुछ समयतक खेद करनेके बाद दोनों जन एक वृक्षकी छायामें जा बैठे। उन्हें इस बातका पता भी न था, कि वे अपने नगरसे कितनी दूर और कहां निकल आये थे। इस समय प्यासके मारे राजाका मुँह सूख रहा था। वह अपने मनमें कहने लगा-"अहो, इस संसारमें वास्तविक रत्न तो अन्न, जल और प्रियवन यह तीन ही हैं । पाषाणके टुकड़ोंको रत्न कहना निरो मूर्खता ही कही जायेगी, क्योंकि इस समय वे मेरे किस काम आ सकते हैं ?" अस्तु, कुछ समय तक तो राजाने धैर्य धारण किया, किन्तु अन्तमें जब उससे न रहा