________________
२५६
* तृतीय सर्ग समझाकर सुमार्गपर लानेकी चेष्टा करता। कभी कभी वह उससे कहता-“हे वत्स! यह तू क्या कर रहा है ? यह शरीर भी अपना नहीं है, तब दूसरोंका कौन भरोसा ? इसलिये दुर्व्यसनोंको त्याग दे, शास्त्रोंका अध्ययन कर, काव्य रसामृतका पान कर, अच्छी कलाओंका अभ्यासकर, धर्मका व्यापार कर और अपने कुलका उद्धार कर । कहा भी है कि :
"एकेनापि सुपुत्रण, विद्यायुक्तेन साधुना।
कुलं पुरुष सिंहेन, चंद्रोण गगनं यथा॥" अर्थात् –“जिस प्रकार चन्द्रसे आकाशकी शोभा बढ़ती है, उसो तरह विद्वान्, श्रेष्ट, और शूरवीर केवल एक हो पुत्र होनेपर भी कुलको शोभा बढ़ जाती है।”
शोक और सन्ताप उत्पन्न करनेवाले अनेक पुत्र उत्पन्न होनेसे क्या लाभ ? ऐसे अनेक पुत्रोंकी अपेक्षा वह एक ही पुत्र अच्छा जो कुलके लिये अवलम्बन रुप हो—जिससे समस्त कुलको विश्रान्ति मिले। जिस प्रकार सुगन्धयुक्त फूलोंसे लदे हुए एक हो वृक्षसे समूचा वन सुगन्धित हो उठता है, उसी तरह एक ही सुपुत्रसे समूचे कुलकी शोभा बढ़ जाती है। जो लोग ठीक रास्ते पर न चलकर बेकार चीजोंके पीछे अपनी शक्ति और अपना समय व्यय करते हैं, उनकी एक भी आशा सफल नहीं होतो। किसीने कहा भी है कि, धातुर्बादीसे धनकी आशा रखना, रसायनसे जीवनकी आशा रखना और वेश्यासे घर बसानेकी आशा रखना यह तीनों ही बातें पुरुषोंके लिये मतिभ्रंश रूप हैं।