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* तृतीय सर्ग *
२४६ हैं। क्योंकि हम लोगोंका यह सम्बन्ध वंश परंपरासे चला आ रहा है। अब तुम्हारे पुत्र न होनेपर मेरे पुत्रका मन्त्री कौन होगा! किसी बाहरी मनुष्यको इस पदपर स्थापित भी किया जाय, तो उसका कौन विश्वास ! तुम तो इस सम्बन्धमें एकदम निश्चिन्तसे दिखायो देते हो ?" यह सुन मन्त्रीने कहा-स्वामिन् ! मैं निश्चिन्त तो नहीं हूं, किन्तु क्या किया जाय ? जीवन, सन्तान और द्रव्ययह तीनोंही देवाधीन हैं। जो बात अपने अधिकारके बाहर है उसके लिये चिन्ता करनेसे क्या लाभ होगा ?” राजाने कहा-"तुम्हारा कहना ठीक है, किन्तु फिर भी प्रयत्न करना हमारा कर्तव्य है। भतः मेरी समझमें तुम्हें कुल देवीकी आराधना करनी चाहिये। यदि उनकी कृपा हो जायगी, तो तुम्हारे मनोरथ पूर्ण होनेमें जरा भी देर न लगेगी।
राजाको यह बात सुन मन्त्री कुल देवीके मन्दिरमें गया और स्नानादिक कर, कुशासनपर बैठ, देवीसे निवेदन किया कि-"हे माता! जबतक आप मुझे पुत्र देनेकी कृपा न करेंगी, तबतक मैं अन्न न ग्रहण करूंगा।” इस प्रकार अभिग्रह लेकर वह तीन दिनतक निराहार बैठा रहा। तीसरे दिन देवीने प्रकट होकर कहा"हे भद्र! तू इस तरह कष्ट क्यों उठा रहा है ? इस समय ऐसा योग है कि तुझे जो पुत्र होगा, वह व्यभिचारी, चोर और जूआरी होगा। इसलिये तू यदि सद्गुणी पुश चाहता हो तो कुछ समयके लिये ठहर जा।" यह सुन मन्त्रीने कहा-"अच्छा, मैं राजासे पूछ लूं।" यह कह वह राजाके पास गया और उसे सारा हाल