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* द्वितीय सर्ग *
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वन् ! संसारसे मुझे उद्वेग हुआ है और मैं प्रवज्या ग्रहण करना चाहता हूँ । इसलिये आप यहीं मासकल्प करनेकी कृपा करें । गुरूने यह प्रार्थना सहर्ष स्वीकार कर ली। इससे किरणवेगको बड़ा ही आन्द हुआ । उसने घर जाकर मन्त्रीको बुलाया और उसके सम्मुख अपने पुत्रको राज्य भार सोंप दिया। इसके बाद एक दिव्य शिविका पर आरूढ हो वह गुरुके पास आया और उनके निकट दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा ग्रहण करनेके बाद कर्म शल्यको दूर करनेके लिये उसने चिरकाल तक चारित्रका पालन किया । ज्ञानसे उत्सर्ग और अपवाद मार्गको जान कर साथही अपूर्व ज्ञानका अभ्यास कर वे गीतार्थ हुए। इसके बाद गुरुकी आज्ञासे वे अकेले ही विहार करने लगे। कुछ दिनोंके बाद आकाश गमन करते हुए वे पुष्करवरद्वीप पहुँचे और वहां शाश्वत जिनको नमस्कार कर वे हेमाद्रि पर पहुँचे । वहां दिव्य तप करते हुए अनेक परिषहोंके सहन करनेमें वे अपना शेष जीवन व्यतीत करने लगे ।
इधर वह कुर्कुट सर्पका जीव नरकसे निकल कर हेमद्रिकी गुफामें एक महा भयङ्कर सर्प हुआ। वह सदा आहारकी खोज में भटका करता और जो जीव सामने पड़ जाता, उसीको खा जाता । एक दिन भटकते हुए उस नागने ध्यानस्थ किरणवेग मुनिको देखा। उन्हें देखते ही पूर्वजन्मके वैरके कारण वह क्रुद्ध हो उठा । उसी समय मुनिराजके शरीर में लिपट गया और उन्हें जहरिले दाँतोसे अनेक स्थानोंमें डस कर वह वहांसे चलता