________________
* तृतीय सर्ग *
२२३ होती है।" मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा--इन पाँव प्रमादोंके कारण मनुष्यको संसारमें बार बार भटकना पडता है।" इसलिये मनुष्य जन्म मिलनेपर धर्म-कायमें प्रमादन करना चाहिये। अधिक आरम्भ और अधिक परिग्रहसे तथा मांसाहार और पच्चेन्द्रिय जावके वधसे प्राणी नरकमें जाते हैं । जो लोग निःशील, निवत, निर्गुण, दयारहित और पञ्चक्खाण रहित होते हैं, वह मृत्यु होनेपर सातवों पृथ्वीके अप्रतिष्ठान नरकावासमें नारकोके रूपमें उत्पन्न होते हैं।
महाआरम्भ पन्द्रह कर्मादान रूप हैं। वह कर्मादान इस प्रकार हैं-अंगार कर्म, वन कर्म, शकट कर्म, भाटक कर्म, स्फोटक कर्म, दंतवाणिज्य, लाक्षावाणिज्य, रसवाणिज्य, केशवाणिज्य, विषवाणिज्य, यन्त्रपालन, निर्लाञ्छन, असतीपोषण, दवदान और सरशोषण । यह सब कर्मादान त्याज्य माने गये हैं। इनको व्याख्या इस प्रकार है :
अंगार कमे-भठ्ठा लगाकर कोयले बनाना, कुम्हार, लुहार और सुनारका काम, धातुके बर्तन बनाना, ईट और चूना पकाना, प्रभृति कामांसे जीविका उपार्जन करनेको अंगार कर्म कहते हैं। __ वन कर्म-जंगलके सूखे, किंवा गोले, पत्र, पुष्प, कन्द, मूल, फल, तृण, काष्ट, बांस प्रभृतिका खरीद बेंच और वन कटाना, प्रभृति कार्योंसे आजीविका करनेको बनकम कहते हैं।
शकट कर्म-गाड़ीके साधन बनाना, बेचना और उनसे जीविका उपार्जन करनेको शटक कर्म कहते हैं।