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* तृतीय सर्ग *
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"कन्या विक्रयिण श्चैव, रस विक्रयिणस्तथा।
विष विक्रयिण श्चैव, नरा नरक गामिनः ॥" अर्थात्-“कन्या-विक्रय करनेवाले, रस-विक्रय करनेवाले और विष-विक्रय करनेवाले मनुष्य नरकगामी होते हैं।" ___ यंत्रपीड़नादिकका भी कर्मके साथ सम्बन्ध है । यथा-ऊखल, चक्को, चूल्हा, जलकुम्भ और झाड़-इन पांच वस्तुओंसे गृहस्थके घरमें जीवहिंसा होती है। घानीमें तो और अधिक पातक माना गया है। लौकिक शास्त्रोंमें भी इसके सम्बन्धमें कहा गया है कि दस कसाइयोंके समान एक तेली, दस तेलियोंके समान एक वेश्या
और दस वेश्याओंके समान एक राजा होता है । निर्लाञ्छन कर्ममें बैल, घोड़ा, ऊंट प्रभृति पंचेन्द्रिय जीवोंकी कदर्थनाका दोष लगता है । सरःशोषणमें जलचर जीवोंका विनाश होता है। असती पोषण में दास-दासियोंको विक्रय करनेसे दुष्कृत्य एवम् पापकी वृद्धि होती है । ( दाल-दासियोंको लेने-बेचनेको प्रथा इस सम मेवाड़ देशमें भी है ) इसीलिये यह सब कर्म त्याज्य माने गये हैं। __इनके अतिरिक्त कोतवाल, गुप्तवर और सिपाहीके कर्म भी क्रूर होने के कारण श्रावकके लिये वर्जनीय माने गये हैं। बैलोंको मारने जोतने या उन्हें षंढ बनानेके लिये उपदेश नहीं देना चाहिये। यंत्र, हल, शस्त्र, अग्नि, मूशल और ऊखल प्रभृति हिंसक अधिकरण भूल कर भी किसीको न देने चाहियें। कौतूहलवश गीत, नृत्य और नाटकादि देखना, कामशास्त्रमें आशिक होना, चूत मद्यादि व्यसनों का सेवन करना, जलक्रीड़ा करना, झूला झूलना, भैंसे या मेंढे