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* तृतीय सर्ग *
૨૧: नमकको भी त्याज्य मानना होगा। यह कथन भी ठीक है, किन्तु इसका सर्वथा त्याग करनेसे गृहस्थका काम नहीं चल सकता, इसलिये भोजनमें श्रावकको सचित्त लवणका त्याग करना चाहिये । भोजन करते समय नमक लेना हो, तो वह अचित्त लेना चाहिये-सचित्त नहीं । यह अचित भी अग्न्यादि प्रबल शस्त्रोंसे ही हो सकता है, किसी दूसरो तरह नहीं, क्योंकि उसमें अत्यन्त सूक्ष्म अगणित पृथ्वीकाय जीव रहते हैं । भगवति सूत्रके उन्नीसवें शतकके तीसरे उद्देशेमें कहा गया है कि वज्रमय शिलापर स्वल्प पृथ्वीकायको रखकर इक्कीसवार वज्रसे पीसनेपर अनेक जीव पिस जाते हैं और अनेक जीवोंको तो कुछ मालूम भी नहीं होता ।
रात्रि भोजनमें ऊपरसे गिरनेवाले अनेक जीवोंके विनाश होनेकी संभावना रहती है और उसके कारण ऐहिक तथा पारलौकिक दोष लगता है, इसलिये वह त्याज्य माना गया है । कहा गया है कि भोजनमें चिउंटी रह जानेसे वह बुद्धिका नाश करती है, मक्षिका वमन कराती है, जूं से जलोदर होता है, मकड़ीसे कुष्ट होता है, बालसे स्वरभंग होता है, कांटा या लकड़ी गलेमें चुभ जाता है और भ्रमर तालुको फोड़ देता है। निशीथ चूर्णिमें भी कहा गया है कि छिपकलो पड़ा हुआ भोजन करनेसे पीठमें एक प्रकारका भयंकर रोग हो जाता है । इसी तरह अनमें विषाक्त सर्पकी लार, मल, मूत्र और वीर्य प्रभृति पदार्थ पड़ने से कभी कभी मृत्यु तक हो जाती है । यह भी कहा गया है, कि जिस प्रकार