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* तृतीय सर्ग *
२३५ कुछ कहते, तब वह कहता है, कि अभी तो दिन है, रात्रि कहां हुई है ?" श्रावकको इस शिथिलताके कारण उसके परिवारमें भी शिथिलता आ गयो और सभी लोग समय कुसमयका विचार छोड़ इच्छानुसार भोजन करने लगे।
एक बार भद्रक राजाके किसी काममें ऐसा उलझ गया कि वह न तो शामहोको भोजन कर सका न दूसरे दिन दोपहरको हो । धीरे धीरे सूर्यास्तका समय हुआ किन्तु फिर भी वह भोजन करने घर न आया। शामको जिस समय उसे फुरसद मिली, उस समय सूर्यास्त हो चुका था। उस समय उसके मित्रोंने उसे भोजन कर लेनेके लिये बहुतेरा समझाया, किन्तु फिर भी उसने भोजन न किया। कहा है कि
"अप्पहियं कायव्व, जइ सका परहिअंपि कायध्वं ।
अपहिय परहिपाणं, अप्पहिअं चेव कायव्वं ॥" अर्थात्-“उत्तम जीवोंको आत्महित करना चाहिये और शक्ति हो, तो परहित भी करना चाहिये । किन्तु जहां आत्महित और परहित दोनोंका प्रश्न उपस्थित हो, वहां, आत्महित पहले करना चाहिये।"
इस प्रकार भद्रकने रात्रि हो जानेके कारण किसी प्रकार भी भोजन न किया, किन्तु श्रावकको तो अब इसका कोई विचार हो न था, इसलिये उसने रात्रि पड़ जाने पर भो भोजन करलिया । एक समय दैवयोगसे भोजन करते समय उसके माथेसे एक —