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* तृतीय सर्ग *
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प्रभृति कटवाना, नाक या कान छेदना, अकता करना, दागना प्रभृति निर्लाञ्छन कर्म कहलाता है। यह व्यवसाय अत्यन्त वर्जनीय कहा गया है। ___ असतो-घोषण-शुगा, मैना, विल्लो, श्वान, मुर्गा, मयूर, हरिण, शूकर किंवा दासियोंका पोषण करना असती-पोषण कहलाता है।
दबदाज--जंगल में आग लगानेको दवदान कहते हैं । इसके दो भेद हैं--व्यसन पूर्वक दवदान और पुण्य बुद्धि पूर्वक दवदान । नया तृण उत्पन्न करनेके लिये पुराने तृणको जलाना, पैदावारी बढ़ानेके लिये खेतमें अग्नि लगाना प्रभृति पुण्यबुद्धि पूर्वक किया हुआ दवदान माना जाता है । अकारण किंवा कौतुक वश जंगलमें आग लगानेको व्यसन पूर्वक किया हुआ दवदान कहते हैं।
सरःशोषण---सिंचाईके लिये नदी, तालाब या सरोवर आदि का जल शोषण करानेको सरःशोषण कहते हैं। ____इन पन्द्रह कर्मादानोंके आचरण करनेसे बड़ा ही पाप लगता है। इनमेंसे अंगार कर्ममें अग्नि सर्वतोमुख शस्त्र होनेके कारण उससे छः काय जीवोंकी हिंसा होती है। वनकर्ममें वनस्पति और उसके आश्रित जीवोंकी हिंसा होती है। शकट और भाटक कर्ममें भार वहन करनेवाले वृषभादिक और मार्गस्थित छः काय जीवोंकी विराधना होती है। स्फोटक कर्ममें अन्न पीसनेसे वनस्पतिकी और भूमि खोदनेसे पृथ्वीकाय तथा उसमें रहनेवाले प्राणियोंकी विराधना होती है । दन्त, केश, नख, प्रभृति पदार्थोंको