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* पार्श्वनाथ चरित्र *
खरीदनेसे उनके संग्रह करनेवालोंको प्रोत्साहन मिलता है और वे हिंसा करनेको तैयार होते है । लाक्षावाणिज्यके अन्तर्गत लाख, नील, मैनशिल, हरताल, सुहागा, साबुन प्रभृति पदार्थ ऐसे हैं, जिन्हें तैयार करने में भीषण हिंसा होती हैं और तैयार होनेके बाद भी इनसे जीव हिंसा होती है । इसलिये इनका व्यापार करना मना हैं। लाक्षादिसे होनेवाले पापके सम्बन्ध में मनुस्मृति में भो कहा है कि :
" सद्यः पतति मांसेन, लाक्षया लक्खेन च ।
या शुद्धी भवति, ब्राह्मणः क्षीर विक्रयात् । "
अर्थात् – “मांस, लाख और लवणके व्यापारसे ब्राह्मण तुरत पतित होता है और दूध-खीर बेचनेसे वह तीन ही दिनोंमें शूद्र हो जाता है ।"
रसवाणिज्यके अन्तर्गत मधुमें जन्तुओंका घात होता है, दूध आदिमें संपातिक यानी अचानक ऊपरसे गिरनेवाले जीवोंकी हिंसा होती है। दही में दो दिन के बाद संमूर्च्छिम जीव उत्पन्न होते हैं, इसलिये वह त्याज्य है । केशवाणिज्य में द्विपद और चतुष्पद प्राणियोंकी परवशता एवम् उनपर वध, बन्धन, क्षुधा, पिपासा आदिका जो दुःख पड़ता है, इसलिये उससे दोष लगता है । विष तो प्रत्यक्ष ही प्राणघातक है । : इससे न केवल जीवजन्तुओं का ही विनाश होता है, बल्कि मनुष्य तक मर जाते हैं, इसलिये इसका व्यवसाय त्याज्य माना गया है । विषवाणिज्यका अन्य शास्त्रों में भी निषेध किया गया है, यथा :