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* तृतीय सर्ग * उसने सारी रात बिता दी। वेश्याने भो उसे सोनेकी चिड़िया समझ इस तरह अपने जालमें फंसाया, कि वह किसी तरह बाहर न निकल सका और वहीं रहकर उसके साथ आनन्द करने लगा। वेश्याने जब देखा कि अब यह अच्छी तरह फंस गया है और अब मुझे छोड़कर कहीं नहीं जा सकता, तब एक दिन उसने धनपालसे पूछा-“हे स्वामिन् ! आपका किस निमित्त इस नगर में आगमन हुआ है ?" धनपालने उत्तर दिया व्यापार करनेके लिये। वेश्याने पुनः युक्ति पूर्वक पूछा-आपके पास कुछ धन तो दिखायी नहीं देता, आप व्यापार कैसे करेंगे?" धनपालने गर्वपूर्वक कहा-"नहीं, ऐसो बात नहीं है। मेरे पास पौने चार कोटि मूल्यके तोन रत्न हैं।" वेश्याने कहा-"मुझे तो विश्वास नहीं होता, हों तो दिखाओ। धनपालने तुरत ही तीनों रत्न निकाल कर उसके हाथमें रख दिये। रत्नोंको देखकर वेश्या स्तम्भित हो गयो। उसे वास्तवमें धनपालके पास इतना धन होनेका विश्वास न था। वह रत्नोंको हाथमें लेकर बारम्बार धनपालको चुम्बन और आलिंगन करने लगी। इस प्रकार धनपालको खूब रिझानेके बाद उसने कहा-"स्वामिन् ! इन्हें आप अपने साथ लिये कहांतक घूमेंगे। मैं इन्हें अपने पास रख छोड़ती हूं। आपको जब आवश्यकता हो, तब मांग लोजियेगा। यह आपहीका घर है और मैं आपहीके चरणोंकी दासी हूं। अब आप यहीं रहिये और अपना जीवन सार्थक कीजिये। मनुष्य जन्म बार-बार थोड़े ही मिलता है ?