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* पाश्वनाथ चरित्र #
अब धनपाल दिनभर मजूरी करता और उससे जो कुछ मिलता, उसीमें निर्वाह करता था । वह दिनमें किसी तालाब या कुएं पर जाकर भोजन कर आता और बाजार में सो रहता । इस प्रकार वह बहुत दुःखी हुआ और मनमें पश्चाताप करता हुआ कहने लगा- “भुझे यह मेरे प्रमादहीका फल मिला है। एक मेरे बड़े भाई धनदेव हैं जो अपने व्यापार और अपनी सज्जनता के कारण सर्वत्र विख्यात हो रहे हैं और एक मैं हूं, जो कि पैसे पैसेके लिये दरदर मारा फिरता हूँ ।"
इस तरह तीनों बन्धुओं को उस नगर में रहते हुए बारह वर्ष बीत गये। इस बीचमें किसी भाईकी किसी भाईसे भेंटतक न हुई । इसी समय इनके पिताने धनदेवके नामसे एक पत्र भेजकर तीनों भाइयोंको घर लौट आनेकी आज्ञा दी । पिताका यह समाचार पाकर धनदेवको बड़ा ही आनन्द हुआ । किन्तु साथ हो उसे यह चिन्ता हो पड़ी कि अब दोनों भाइयोंका पता किस प्रकार लगाया जाय और उन्हें यह सन्देश किस प्रकार पहुँचाया जाय। उसने नगरमें चारों ओर अपने सेवकों द्वारा खोज करायी, किन्तु कहीं भी उनका पता न मिला । अन्तमें उसने स्थिर किया, कि इस नगरके समस्त लोगों को भोजन करानेका आयोजन किया जाय । ऐसा करनेसे किसी न किसी दिन भाइयोंसे भेंट हो ही जायगी । यह सोचकर उसने नाना प्रकारके पक्वान्न तैयार कराये और एक विशाल भोजकी आयोजना करायी। पहले दिन राजपरिवार और राज कर्मचारियोंको निमन्त्रित किया और उन्हें भक्ति पूर्वक